भारत के सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन को जिन्होंने नई दिशा दी , ऐसे डा० भीम राव आम्बेडकर , का समग्र मूल्याँकन अभी भी नहीं हुआ है । उनका व्यक्तित्व विशाल था और अध्ययन का क्षेत्र अति विस्तृत था । लेकिन यह देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि आम्बेडकर अन्ततः अपनी पहचान के लिये केवल दलित नेता के रुप में ही स्थापित हो गये । यह बाबा साहिब आम्बेडकर के व्यक्तित्व के साथ सचमुच अन्याय ही कहा जायेगा । अध्ययन के लिहाज़ से यदि देखा जाये तो आम्बेडकर अर्थशास्त्री ,विधि विशारद और शिक्षा शास्त्री भी थे । धर्म शास्त्र मर्मज्ञ थे । हिन्दू समाज के भीतर की बीमारियों से लड़ते लड़ते उन्होंने देश के सामाजिक जीवन में ख्याति अर्जित की । बाबा साहिब मूल रुप में एक अर्थशास्त्री कहे जा सकते हैं । कोलम्बिया विश्वविद्यालय में जब वे पढ़ाई कर रहे थे तो अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री के लिये उन्हें एक लघु शोध प्रबन्ध भी लिखना था । उन्होंने इस के लिये जो विषय चुना वह भारत पर हिज मैजस्टी की सरकार से पहले राज कर रही ईस्ट इंडिया कम्पनी की राजस्व व्यवस्था और उससे भारत के हो रहे आर्थिक शोषण से ही सम्बंधित था । विषय का नाम था, ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रशासन और वित्त प्रबन्ध । यह विश्वविद्यालय में १५ मई १९१५ को मूल्याँकन हेतु जमा करवाया गया था । लेकिन दुर्भाग्य से आम्बेडकर के इस शोध प्रबन्ध की कहीं चर्चा नहीं होती थी । १९७९ में आम्बेडकर पर शोध कार्य करने वाले बसन्त मून ने बहुत भागदौड़ करके कोलम्बिया विश्वविद्यालय से इस शोध प्रबन्ध की एक प्रति प्राप्त की और आम्बेडकर के बौद्धिक ज्ञान का यह पक्ष सामने आया । आम्बेडकर का निष्कर्ष था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी एक शुद्ध व्यापारिक संस्थान था जिसका उद्देश्य अपने अंशधारकों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा देना होता था । निदेशक मंडल की योग्यता व दक्षता का पैमाना यह नहीं हो सकता था कि भारत में उसने जन कल्याण पर कितना व्यय किया है । उसका पैमाना तो यह होता था कि मंडल कम्पनी के अंशधारकों को कितना मुनाफ़ा बाँटता है । कम्पनी के मुनाफ़े के कारण इंग्लैंड में दूसरे व्यापारियों के मन में ईर्ष्या और विद्वेष पैदा होता था । लेकिन इसके साथ ही वहाँ के सत्ताधारी भी कम्पनी की बाँह मरोड़ते थे और उसके कारण कम्पनी उनको पैसा देती थी । लेकिन कम्पनी लंदन में जितना लुटाती थी , उससे कहीं ज़्यादा भारत के लोगों से बसूलना थी । आम्बेडकर ने पहली बार कम्पनी द्वारा किया जाने वाले शोषण का विश्लेष्णात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया ।
आम्बेडकर की दूसरी किताब ,”ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय वित्त व्यवस्था का विकास – साम्राज्यवादी वित्त व्यवस्था के प्रान्तीय विकेन्द्रीकरण ” थी । यह शोध प्रबन्ध भी कोलम्बिया विश्वविद्यालय में ही प्रस्तुत दिया गया था । इसका निदेशन उस समय वित्त प्रबन्धन के जाने माने विद्वान एडविन आर.ए सेलिगमेन कर रहे थे । प्रकाशित ग्रन्थ सयाजीराव गायकवाड को समर्पित है ।
आम्बेडकर को यह अध्ययन करते समय किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा यह जानना रुचिकर होगा । आम्बेडकर लिखते हैं , मुझे अपने अध्ययन या शोध कार्य के दौरान इस विषय पर प्रारम्भिक जानकारी के लिये भी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं थी ।” दरअसल हिन्दुस्तान में इस विषय पर अब तक किसी ने कार्य किया ही नहीं था । लेकिन अंग्रेज़ी साम्राज्य की भारत का शोषण करने वाली नीति को जानने के लिये उसके लोक वित्त और उससे भी आगे उसके विकेन्द्रीकरण को जानना लाज़िमी था । इतना ही नहीं इस महत्वपूर्ण विषय को पूरी तरह स्पष्ट करने के लिये आम्बेडकर , ” ब्रिटिश भारत में स्थानीय वित्त ” पुस्तक भी लिख रहे थे और उन्हें आशा थी कि यह पुस्तक भी जल्दी ही पूरी हो जायेगी । बाबा साहेब की ये तीनों पुस्तकें मिल कर भारत में अंग्रेज़ों के शोषण के अर्थशास्त्र को स्पष्ट करती हैं । कोलम्बिया विश्वविद्यालय के ही डा० सेलिगमेन लिखते हैं कि मेरी जानकारी में इस विषय पर इतना विस्तृत अध्ययन कभी नहीं किया गया है । उस समय शायद ये दो अर्थशास्त्री ही हुये हैं जिन्होंने भारत में अंग्रेज़ों के शोषण के अर्थ शास्त्र पर गहरा कार्य किया । रमेश चन्द्र दत्त और भीम राव आम्बेडकर । लेकिन इसे क्या कहा जाये कि भीम राव के व्यक्तित्व के इस पहलू की कभी चर्चा नहीं होती । गहरे अध्ययन के बाद आम्बेडकर लिखते हैं ,प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि कि भारत में सीमा शुल्क से राजस्व एकत्रित नहीं किया जाता क्योंकि डर यह है कि इससे भारतीय उद्योग , अंग्रेज़ी उद्योगों के मुक़ाबले सुरक्षित हो जायेंगे । यह बात निर्विवाद है कि भारत की पूरी नीति इंग्लैंड से ही संचालित है और इसका कारण भी स्पष्ट है । भारत का सर्वोच्च कार्यकारी अधिकारी , जो इंग्लैंड में बैठा भारत सचिव है , उसकी मुख्य चिन्ता वहाँ के बाज़ारों को बचाने की है और उसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये भारतीय वित्त प्रबन्धन किया जाता है ।
लेकिन क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि जिस अर्थशास्त्री ने अंग्रेज़ों की अर्थव्यवस्था का गहरा अध्ययन करके उसे भारत विरोधी सिद्ध किया , केवल भाषण मात्र से नहीं बल्कि दुनिया के अकादमिक जगत के सामने अपने अकाट्य तर्कों से , उसके इस पक्ष की कोई चर्चा ही नहीं करता । मेरा तो यहाँ तक मानना है कि लोक वित्त प्रबन्धन के जिन लोकोपयोगी सिद्धान्तों की चर्चा बाबा साहेब ने की है , उसको वर्तमान सन्दर्भों में भी परखा जा सकता है या नहीं , इन सम्भावनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिये । बाबा साहेब का अर्थशास्त्री का यह रुप अभी किसी के सामने ज़्यादा नहीं आया है । विदेशी शासकों को राजनैतिक स्तर पर नंगा करने में अनेक राजनीतिज्ञों ने भूमिका निभाई होगी लेकिन बौद्धिक जगत में उनका साम्राज्यवादी मानवता विरोधी चेहरा नंगा करने के लिये बाबा साहेब ने उन्हीं के हथियार , अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों , का प्रयोग करते हुये यह ऐतिहासिक कार्य किया , इसकी चर्चा नहीं होती । वायसराय कौंसिल में बाबा साहेब श्रम मंत्री थे । उन दिनों उनके भाषण और विधायिका में श्रम नीति को लेकर दिये गये वक्तव्य उनकी मौलिक सोच को इंगित करते हैं । यह ठीक है कि मोटे तौर पर श्रम मंत्री को सरकार की नीतियों के अनुकूल ही बोलना पड़ता है , लेकिन फिर भी यदि बाबा साहेब के उन दिनों के भाषणों का अध्ययन किया जाये तो उनकी श्रम नीति के विषय में आदर्श सोच क्या थी , इसका पता चलता है । दरअसल उन दिनों दुनिया भर के मज़दूरो एक हो जाओ , के दिन थे । और यह माना जाता था कि किसी भी देश की कल्याणकारी श्रम नीति का आधार मार्क्सवादी सोच ही हो सकती है । लेकिन आम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे । उससे इतर उनकी श्रम नीति किसी के लिये भी गहन अध्ययन का विषय हो सकती थी , लेकिन उसको भुला दिया गया ।
देश के विधि विषारदों की पंक्ति में बाबा साहेब अग्रणी थे । संघीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के वे अध्यक्ष थे । अध्यक्ष थे , इतना कह देने मात्र से उनके योगदान को समझा नहीं जा सकता । प्रारूप समिति के शेष सदस्यों का क्या योगदान रहा , यह किसी से छिपा हुआ नहीं है । अधिकांश कार्य भीम राव को ही करना पड़ा । लेकिन यहाँ प्रश्न केवल बौद्धिक योगदान का ही नहीं है । संविधान की मूल और आधारभूत अवधारणाओं को स्थापित करने में बाबा साहेब का क्या योगदान था , यह जान लेना बहुत महत्वपूर्ण है । एक बात जिस की आजकल बहुत चर्चा हो रही है , वह संविधान की दो आधारभूत अवधारणाओं , पंथ निरपेक्षता और समाजवाद को लेकर है । आम्बेडकर ने इन दोनों अवधारणाओं को मूल संविधान की प्रस्तावना में शामिल नहीं किया था । शामिल करने की बात तो दूर , बल्कि इस का विरोध भी किया था । बाबा साहेब के विरोध को आज के सन्दर्भों में नहीं समझा जा सकता । वह युग १९४७-१९५० का ऐसा युग था जबकि समाजवाद की लहरों में बहना प्रगतिशीलता की निशानी समझा जाता था । पंडित नेहरु तो समाजवाद की खाज के सबसे बड़े शिकार थे । तब भी बाबा साहेब ने इसे प्रस्तावना में शामिल नहीं किया । प्रो० के टी शाह ने इसे शामिल करने का आग्रह किया था । आम्बेडकर का कहना था कि हम किसी विशेष वाद या विचार को अपनी भावी पीढ़ियों के गले मैं कैसे बाँध सकते हैं ? मेरा कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि संविधान सभा में और उसके बाद संसद में भी दिये गये उनके भाषण , उनकी आधारभूत अवधारणाओं पर चिन्तन को स्पष्ट करते हैं । यह उनका एक मौलिक चिन्तक होने के स्वरुप को स्पष्ट करता है । लेकिन दुर्भाग्य से उनके आन्दोलनकारी स्वरुप ने उनके बाक़ी सभी स्वरुपों को इतना आच्छादित कर लिया है कि शेष की चर्चा ही नहीं होती ।
आम्बेडकर ने दलित समाज की समस्याओं के लेकर बौद्धिक चिन्तन किया , उसके समाधान के लिये व्यवहारिक उपाये सुझाए और फिर उनकी प्राप्ति के लिये आगे होकर आन्दोलन किये । लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को एकांगी दृष्टिकोण से देखा जाता है और फिर बाबा साहेब को भी उसी एक वर्ग का उद्धारक या नेता कह कर स्थापित किया जा रहा है । लेकिन क्या भीम राव के ये प्रयास सचमुच एकांगी थे और भारतीय या हिन्दू समाज की समग्र प्रक्रिया से कटे हुये थे ? दरअसल ऐसा है नहीं । वे जानते थे कि दलित समाज का मामला सम्पूर्ण हिन्दू समाज की आन्तरिक व्यवस्था का हिस्सा है और उसी से गुँथा हुआ है । इसलिये इसका समाधान भी इस सम्पूर्ण व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन से ही संभव है । वे इसी लिये प्रयासरत थे । यदि इस लिहाज़ से देखा जाये तब भी बाबा साहेब पूरे हिन्दू समाज के क्रान्तिकारी उद्धारक कहे जा सकते हैं किसी एक वर्ग के नहीं । अब वक्त आ गया है कि बाबा साहेब आम्बेडकर के समग्र राष्ट्रीय स्वरुप को प्रस्तुत करके उनके साथ न्याय किया जाये , न की उन्हें एक वर्ग का नेता प्रस्तुत करके उनके महान व्यक्तित्व को धूमिल किया जाये । आम्बेडकर के अध्येताओं के लिये इसका ध्यान रखना जरुरी है । अभी तक भीम राव को जितना समझा गया है , वह उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का एक चौथाई भी नहीं है । जब उनका पूरा राष्ट्रीय स्वरुप सामने आयेगा , तभी पता चलेगा कि हमारे युग ने किस विभूति को जन्म दिया था । महात्मा गान्धी शायद यह समझ गये थे , तभी संविधान रचना के लिये जब पंडित नेहरु किसी विदेशी संविधान विशारद को निमंत्रित करने की बात कर रहे थे तो गान्धी ने कहा था कि जब देश में आम्बेडकर जैसा विधि विशारद बैठा है तो बाहर से किसी को खोजने की क्या जरुरत है ?