पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों के लिये अजमल कसाब सिर्फ एक ऐसा नाम है जो फिदायीन बनकर भी मौत को गले ना लगा सका। यानी असफल ट्रेनिंग का प्रतीक है कसाब। लेकिन आतंकवाद किन नन्हें हाथों के जरिए किस तरह परवान चढ़ता है और पाकिस्तान में कैसे मुफलिसी आतंकवाद के लिये खाद का काम करती है, यह अजमल कसाब से लेकर उन सैकड़ों फिदायीन बने बच्चों के हालात को देखकर समझा जा सकता है जो जिन्दगी के लिये मौत को चुनते हैं। इस्लाम,जेहाद और भूख या जिन्दगी जीने के लिये रोजगार। आतंक की पाठशाला के यही चार सच हैं, जिसके आसरे पाकिस्तान में गरीब परिवारों के परिवेश और बच्चो के भूख से लड़ने के जुनून को उकसाकर फिदायीन बनाने की दिशा में ले जाती है। दरअसल, पाकिस्तान के नेशनल बुक फाउडेशन की किताब “प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट ” कसाब सरीखे फिदायीन बनने वाले बच्चों के अनकहे सच उकारती है, जिसे क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट डा सोहेल अब्बास ने पन्नों पर लाया है।
तालिबान के हाशिये पर जाने के बाद या कहे पाकिस्तान सरकार के तालिबान को लेकर कड़े रुख के बाद जब अफगानिस्तान से पाकिस्तान लौटते बच्चों को पकड़ा गया तो पूछताछ में पता यही चला कि सभी जेहाद में शामिल होने के लिये फिदायीन बनकर निकले थे। पाकिस्तान के हरीपुर और पेशावर जेल में बंद ऐसे ही जेहादियों में 517 फिदायीन बच्चों का इंटरव्यूह सोहेल अब्बास ने लिया। और जो जवाब फिदायीन बच्चों ने दिये उसने ना सिर्फ पाकिस्तान के सामाजिक आर्थिक हालात की त्रासदी बता दी बल्कि दुनिया के सामने भी आतंक के लिये इस्लाम और जेहाद का इस्तेमाल कर कैसे बच्चो की भूख और अच्छी जिन्दगी पाने की तड़प को फिदायीन बनाकर उभारा, यही सच सामने आता है। फिदायीन बनने का मतलब तो मौत है। इससे क्या मिलेगा। और अगर 21 बरस का फिदायीन जवाब दे कि मौत के बाद बेहतर जिन्दगी मिलेगी तो यह आतंक की जीत है या मानवियता की हार। तय जो भी कीजिये लेकिन सोहेल अब्बास की किताब “प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट ” में पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुये अजमल कसाब सरीके बच्चो का सच ही सामने रेंगने लगता है। यह सवाल बहुत छोटा हो जाता है कि बेहद खामोशी से अजमल को फांसी देकर मुंबई हमले की किताब बंद कर दी गई। जाहिर है कसाब इस कडी में सिर्फ एक है। जो पांच भाई-बहनों में तीसरे नंबर का होकर ना तो घर का प्यारा रहा और घर में पिता की कमाई में भी जिन्दगी को कोई सुकुन ना पा सका। कसाब के पिता पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के ओकारा जिले के फरीदकोट में रहते हुये शहरी रिहाइश इलाके में दही पूरी का ठेला लगाकर ही कमाई करते। कसाब ही नहीं पाकिस्तान के सबसे गरीब इलाको में से पंजाब प्रांत के इस इलाके का सच यही है कि जिस बच्चे के हाथ पांव मजबूत होते वह पढ़ाई के लिये खड़े होने से पहले काम करने के लिये सड़क पर खुद को खड़ा पाता।
कसाब की भी यही कहानी रही और कसाब जैसे सैकड़ों बच्चो की भी यही कहानी है। और काम ना मिले तो फेट भरने के लिये फिदायीन बनना ही जिन्दगी का सबसे खूबसूरत तोहफा माना जाता। यह सच किताब में जलाल, उस्मान, हाशिम या इमरान सरीखे सैकड़ों बच्चों का है। फिदायीन बनने के जो हालात बताये गये हैं, वह कसाब के जीवन से मेल खाते हैं। जरा कसाब का सच देखिये। लश्कर-ए-तोएबा के राजनीतिक विंग जमात-उल-दावा के जरीये कसाब ने जाना कि इस्लाम खतरे में है। सवाल मुजाहिदो का है। मौत हुई तो भी जिन्दगी बेहतर होगी। और इसी जुनून में रावलपिंडी से लेकर मुजफ्फराबाद में दौरा-ए-आम और दौरा-ए-खास की ट्रेनिंग के बाद फिदायीन का तमगा लगा। और फिदायीन युवाओ की टोली में कसाब का नाम फ़क्र से लिया जाने लगा यानी मौत के लिये जीने की मान्यता क्या होती है, इसे सोहेल अब्बास ने “प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट” में बार बार उभारा है।
सोहेल अब्बास की किताब बताती है कि आतंकवाद को जेहाद से जोड़ना आतंक का पहला पड़ाव है। गरीब परिवारों के बच्चो को खुदा के नाम पर जेहाद के लिये इस्तेमाल करना आतंक का दूसरा पड़ाव है। और हर हमले में मारे जाने वाले फिदायीन को सीधे खुदा के पास जाने वाले शहीद के तौर पर बताना तीसरा पड़ाव होता है। यानी कसाब की तर्ज पर तालिबान के रास्ते पर फिदायीन बनकर निकले 500 से ज्यादा बच्चो के दिमाग को पढ़ने के बाद सोहेल अब्बास ने पाया कि गरीबी और अशिक्षा पाकिस्तान में आतंकवाद के लिये खाद का काम करती है। फिर धर्म के नाम पर आतंक को परिभाषित करना आधुनिक बीज बनकर फैलता है। कराची में रहने वाले 7 वीं पास जलाल को इस्लाम की रक्षा करने के उद्देश्य से फिदायीन बनना मंजूर होता है। स्वात का 29 बरस का हाशिम तो 4 बरस की बेटी और 2 बरस के बेटे का पिता है। लेकिन जो पाठ उसे मौलवी पढ़ाते हैं, उसके मुताबिक खुदा के आदेश पर वह जेहाद के लिये निकलता है। और उसके ना रहने पर खुदा ही उसके बच्चों की देखभाल करते हैं। सरगोदा में 5वी का छात्र 11 वर्षीय उस्मान को तो तालिबान इस्लाम के लिये लड़ते हुये खत्म होते दिखायी देते हैं। जिनकी मदद करने पर खुदा से सीधे राफ्ता हर बच्चे का बनता है तो पूर्वी काबूल पहुंचकर उस्मान तालिबानी बैरक में ही छूट जाता है और बच जाता है। लेकिन मौत को गले ना लगा पाने का गम उसे पाकिस्तान की जेल में भी सालता रहता है। 14 बरस का जमील तो धार्मिक पिता की छाव में ही अच्छा जीवन व्यतीत करते हुये जेहाद की दिशा में इसलिये चल पड़ता है क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ जो बर्ताव अमेरिकी सेना करती है उनकी तस्वीरे उसे अंदर से हिला देती है। और झटके में अंग्रेजी स्कूल की पढ़ाई, तेज संगीत में रुचि, अच्छे कपड़े पहनने की सोच सब कुछ बदल जाती है। और जमील तालिबान के रास्ते चल पड़ता है। दूध बेचने वाले का बेटे 13 बरस के अकबर को तो अपने स्कूल में ही पहला पाठ यही मिलता है कि अगर घर की खुली खिडकी से आजान की आवाज जरुर आनी चाहिये और अगर उस खिड़की से साफ हवा भी आती है तो वह बोनस है। और धीरे धीरे जिन्दगी पर मौत हावी होती है और रास्ता जेहाद की दिशा में चल निकलता है। इमरान तो जेहाद के लिये सिर्फ 20 हजार रुपये में अपने हिस्से की जमीन बेच कर फिदायीन बनने का फैसला लेता है। और तालिबान को ही इस्लाम का रक्षक मानते हैं और फिदायिन बनकर मौत को जिन्दगी मानने से नहीं चूकते।”प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट ” में जेहाद के नाम पर फिदायीन बनने वाले लड़कों से जेहाद का मतलब पूछा जाता है तो 73 फीसदी इसे ग्लोरी आफ इस्लाम से जोड़ते हैं। और जेहाद से मिलेगा क्या इस सवाल के जवाब में अधिकतर यही कहते है कि मौत के बाद बेहतर जिंदगी मिलेगी। यानी बेहतर जिन्दगी के लिये मौत। मुश्किल यह भी है कि जिस उम्र के लड़के फिदायीन बनने के लिये सबसे ज्यादा उतावले होते हैं, उनकी उम्र 18 से 25 है। और आतंकवादी संगठनों में इसी उम्र के लडके कमांडर से लेकर फिदायीन हमलावर के तौर पर मौजूद हैं। “प्रोबिंग द जेहादी माइडसेट “के जरीये सोहेल अब्बास आंतक के उस मर्म को भी पकड़ते हैं, जहां मां-बाप का प्यार भी इस्लाम और जेहाद के नाम पर अपने बच्चों को फिदायिन बनाने में गर्व महसूस करता है। क्योंकि गरीबी के बीच सबसे गरीब परिवारो के जीवन में आतंक की तकरीर देने के लिये लश्कर-ए-तोयबा से लेकर जेहादी काउंसिल के आधे दर्जन आतंकवादी संगठनों को चलाने वाले फिदायीन बनाने को तैयार होने वाले परिवारों को सार्वजनिक तौर पर मान्यता देने पहुंचते हैं। और मौत की खबर आ जाये तो बेहतर जिन्दगी पाने की दलील देते हैं। कसाब की फांसी के बाद लशकर चीफ हाफिज सईद की लाहौर में तकरीर इसका एक उदाहरण है। जो खुले तौर पर फिदायीन कसाब की मौत को उसे जन्नत और खुदा के दरवाजे पर ले जाने वाला बताती है और कहीं किसी स्तर पर इसका विरोध नहीं होता ।
जाहिर है “प्रोबिंग द जेहादी माइडसेट “पाकिस्तान के आतंक विरोधी तरीकों पर भी बिना कहे अंगुली उठाता है, क्योंकि तालिबान के असफल होने के बाद जब बच्चे समर्पण करते हैं और पाकिस्तान की उदार राजनीति से उनका पाला पडता है और फिदायीन बनने के बाद के अनुभवों को याद करते हुये जब इन युवा फिदायीनों से यह पूछा जाता है कि अब आगे उनका मकसद क्या है तो करीब 80 फिसदी लडके रोजमर्रा की जिन्दगी को बंहतर बनाना ही अपना लक्ष्य बताते हैं। यानी जिन्दगी को मौत में नहीं जिन्दगी में टटोलते हैं। और यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि फिदायीन बनने के रास्ते के बाद जब जिन्दगी उनके साथ है तो वह मौत को अब गले लगाना नहीं चाहते हैं या फिदायीन बनकर मौत को जिस नजरीये से वह देख रहे थे वह गलत था। यानी सही वातावरण मिले तो फिदायीन के रास्ते पर भटकने से पहले ही बच्चे संभल सकते हैं । सोहेल अब्बास की किताब “प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट ” जेहादी बच्चों के बारे जो तथ्य बताते हैं, वह भी पाकिस्तान में पनपते आतंक की पीछे की सोच को साफ कर देता है। क्योंकि सिर्फ 4 फीसदी फिदायीन बच्चे ही इस्लाम के इतिहास को पढ़े हैं। 69 फीसदी मानते है कि इस्लाम खतरे में हैं। किताब “प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट “संकेत में ही पाकिस्तान के उस अंधेरे पर सवाल करती है, जहां अशिक्षा है। मुफलिसी है। तो सवाल यह भी है कि अजमल कसाब की फांसी के बाद पाकिस्तान की सरकार या वहां के राजनेता कितना समझेंगे कि पाकिस्तान की सामाजिक-आर्थिक परिस्थतियों को ठीक करना जरुरी है। अन्यथा सियासी बातो से ना तो आतंकवाद खत्म होगा और ना ही फांसी या मौत का डर फिदायिन बनने वालो को डरायेगा। क्योंकि गरीबी-मुफलिसी में जीते परिवारों के लिये खुदा का रास्ता ही सबसे बड़ा बताकर जब पहली दस्तक आतंकवाद देता है तो मौत का खौफ टिकेगा कहां।