मी शरद पोटले। रालेगन सिद्दि हूण आलो। रात साढ़े बारह बजे तिहाड़ जेल के गेट नंबर तीन पर अचानक एक व्यक्ति ने जैसे ही पीछे से हाथ पकड़ते हुये मराठी में कहा-मैं शरद पोटले । रालेगन सिद्दि से आया हूं। तो मुझे 1991 में महाराष्ट्र में अन्ना का वह आंदोलन याद गया जो नौकरशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की शुरुआत कर उन्होंने राज्य सरकार को सीधे कहा था कि या तो भ्रष्ट अधिकारी हटाने होगे नहीं तो अनशन जारी रहेगा। हफ्ते भर के भीतर ही जिस तरह का समर्थन आम लोगो से अन्ना को मिला, उससे उस वक्त की कांग्रेस सरकार इतना दबाव में आयी कि उसने समयबद्द सीमा में जांच करवाने के आदेश दे दिये और उसके बाद 40 भ्रष्ट नौकरशाहों को बर्खास्त कर दिया।
उस आंदोलन में अन्ना हजारे को अनशन के बाद नीबू-पानी का पहला घूंट पिलाने वाला यही शरद पोटले था। उसी बरस स्कूल से कॉलेज में शरद पाटिल ने कदम रखा था और अन्ना हजारे ने पूछा था बनना क्या चाहते हो। तो शरद ने पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनने की इच्छा जतायी थी। और बीस बरस बाद जब तिहाड़ जेल के सामने शरद पोटले से पूछा कि कहा बाबूगिरी कर रहे हो तो उसने बताया कि पढ़ लिखकर भी खेती कर रहा है। और बाबू बनने का सपना उसने तब छोड़ा जब 199 में अन्ना ने महाराष्ट्र के भ्रष्ट्र मंत्रियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और उस वक्त की शिवसेना सरकार अन्ना के जान के पीछे पड़ गयी। तब रालेगन सिद्दि के पांच लोगों में से एक शरद पोटले भी था जो उन अपराधियों को अन्ना की सच्चाई बताकर उनकी जान की कीमत बतायी थी, जिन्हें अन्ना को जान से मारने की सुपारी दी गयी थी। और फिर अन्ना पर कोई अपराधी हाथ भी नही उठा सका। लेकिन पहली बार 16 अगस्त को दिल्ली पहुंचे शरद ने अन्ना की गिरपफ्तारी देखी तो उसे लगा कि दिल्ली में अपराध की परिभाषा बदल जाती है। मगर रात होते होते जब तिहाड़ जेल के बाहर युवाओ का जुनून देखा तो मुलाकात की पुरानी यादों को टटोलते हुये लगभग रोते हुये सिर्फ मराठी में इतना ही बोल पाया कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है।
लेकिन शरद के इस जवाब ने बीते 20 घंटों की सियासी चाल और संसद से लेकर राजनीतिक दलों के भीतर की पहल कदमी ने पहली बार सवाल यह भी खड़ा किया कि अन्ना हजारे की जनलोकपाल के सवाल को लेकर शुरु हुई लड़ाई अब संसदीय लोकतंत्र को चुनौती भी दे रही है और राजनीति अन्ना को या तो अपना प्यादा बनाने पर आमादा है या फिर आंदोलन को हड़पने की दिशा में कदम बढ़ा रही है। क्योंकि एक तरफ सरकार ने चाहे अन्ना की हर शर्त मानते हुये रिहाई का रास्ता साफ किया लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर संसद के भीतर किसी सांसद ने अन्ना हजारे को मान्यता नहीं दी। मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को संसदीय लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा खतरा भी बताया और अपनी विकास अर्थव्यवस्था के खांचे को पटरी से उतरने के लिये अन्ना के आंदोलन के पीछे अंतर्राष्ट्रीय साचिश के संकेत भी दिये। वहीं कमोवेश हर पार्टी के सांसदो ने जिस तरह अन्ना को मजाक में बदलने की कोशिश की संसद से सारे संकेत यही निकले की पहली बार संसदीय राजनीति को सड़क के आंदोलन से खतरा तो लग रहा है। क्योंकि जिस तादाद में शहर दर शहर हर तबके के लोग सड़क पर उतरे उसने उन पुराने आंदोलन के समानांतर एक तिरछी बड़ी रेखा खींच कर पहली बार इसके संकेत भी दिये कि राजनीतिक मंच से ज्यादा भरोसा गैर राजनीतिक मंच पर आम लोगो का आ टिका है। इसलिये अन्ना की महक 1974 के जेपी या 1989 के वीपी आंदोलन में खोजना भूल होगी। यह भूल ठीक वैसी ही है जैसे महात्मा गाधी का 1923 में अपनी गिरफ्तारी के विरोध में एक रुपये की जमानत लेने से भी इंकार करना था और जज को यह कहना पडा कि “अगले निर्णय तक वह बिना जमानत ही एम के गांधी को रिहा कर रहे हैं।” यह ठीक बैसे ही है जैसे अन्ना ने 16 अगस्त को जमानत लेने से इंकार कर दिया और मजिस्ट्रेट की पहल पर दिल्ली पुलिस ने सरकार के निर्देश पर बिना जमानत लिये ही अन्ना को रिहाई का वार्ट थमा दिया।
दरअसल यह वैसी ही समानता है जैसे 1974 में गुजरात की मंहगाई को लेकर जेपी से संघर्ष शुरु किया। मामला भ्रष्टाचार तक गया। गिरफ्त में बिहार भी आया। और गुजरात में मोरारजी देसाई अनशन पर भी बैठे। इंदिरा गांधी ने अपना दामन बचाने के लिये गुजरात में विधानसभा भंग भी की। लेकिन जेपी ने इंदिरा की चुनौती को जिस स्तर पर लिया और धीरे धीरे समूचा भारत उसकी गिरफ्त में आता गया और सत्ता परिवर्तन के बाद ही संघर्ष थमा । हो सकता है जंतर मंतर से तिहाड़ तक जा पहुंचे आंदोलन का रुख भी अब महज भ्रट्राचार का नहीं रहा और आंदोलन धीरे धीरे उस दिशा में बढता चला जाये जहा संसदीय राजनीति को चुनौती देते हुये संसदीय राजनीति में बडे सुधार की बात शुरु हो जाये। समझना यह भी होगा कि 74 में जेपी हो या 89 में तत्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती देकर सड़क पर उतरे वीपी सिंह। दोनों के मामले चाहे भ्रष्टाचार को लेकर सत्ता को चुनौती अभी की ही तरह देते दिखायी पड़े लेकिन दोनो नेताओ की पहचान राजनीतिक थी। अन्ना राजनेता नहीं हैं। आंदोलन के लिये रणनीति बनाती अन्ना की टीम राजनीतिक नहीं है। और इससे पहले के दोनों दौर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बेहद महीन तरीके से हड़पा। और इस बार भी उज्जैन के चिंतर शिवर से 24 घंटे पहले 16 अगस्त को ही हर स्वसंसेवक को यह निर्देश भी दे दिया गया कि उसकी भागेदारी आंदोलन में सड़क पर बैठे लोगो के बीच ना सिर्फ होनी चाहिये बल्कि संघर्ष का मैदान खाली ना हो इसके लिये हर तरह का संघर्ष करना होगा।
यह निर्देश भाजपा के कार्यकर्ता और युवा विंग को भी है। लेकिन पहली बार बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा कि जो संसद अन्ना को अपने अंगुठे पर रखती है। जो सांसद अन्ना को संसदीय लोकतंत्र को चुनौती देने वाला मानते हैं। वह अन्ना से इसलिये सहमे हुये है क्योकि पहली बार सड़क पर अन्ना आंदोलन के समर्थन में देश भर में लोग जुटे हैं। और यह लोग चाहे उत्साह से अन्ना का साथ दे रहे हैं लेकिन उनके भीतर इस बात का आक्रोष है कि जो काम संसद को, जो काम सांसदो को और जो काम सरकार को करनी चाहिये वह कर नहीं रही है। इसलिये कॉलेज या कामगारो से इतर इस बार सडक पर वह कारपोरेट , बहुराष्ट्रीय कंपनी और आईटी सेक्टर में काम करते प्रोफेशनल उतरे हैं, जिनके सामने सवाल यह है कि टैक्स देने के बाद उनका जीवन त्रासदी में डूबा है। अगर कालाधन नहीं है तो सफेद रास्ता बढ़ती मुद्रास्फीती से बैंक के जरीये भी घाटा ही देगा । और मुनाफे का रास्ता सिर्फ जमीन या सोना खरीद पर आ टिकेगा।
यानी पहली बार देश का हर तबका अगर परेशान है तो पहली बार इसे अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक मंच में समाधान की जगह संसद को चुनौती देते हुये अपने आक्रोष को व्यक्त करने की खुली जगह मिली है। ऐसे मौके पर अगर प्रधानमंत्री संसद में अपने भाषण की समाप्ती यह कहकर करे कि , ‘ हम जनता के चुने हुये प्रतिनिधी है और हम अपने लोकतंत्र पर आंच आने नहीं देगे। ” तो जेहन में सुपारी देने वालो से बचाने वाले शरद पोटले का चेहरा याद आ गया जो तिहाड़ के बाहर अब भी यह सोच कर बैढा है कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है । और देश में पहली बार लोकतंत्र को लेकर ही संसद और सडक ना सिर्फ अलग अलग राह पकड़ रहे हैं। बल्कि संविधान में संसद सत्ता बड़ी है या जनतंत्र यह सवाल भी निशाने पर चुनावी व्यवस्था को ला रही है।