हाल ही में केन्द्र सरकार ने विभिन्न संगठनों की माँग पर 2011 की जनगणना के धर्म संबंधी आँकड़े आधिकारिक रूप से उजागर किए हैं. जैसे ही यह आँकड़े सामने आए, उसके बाद से ही देश के भिन्न-भिन्न वर्गों सहित मीडिया और बुद्धिजीवियों में बहस छिड़ गई है. हिन्दू धार्मिक संगठन इन प्रकाशित आँकड़ों को गलत या विवादित बता रहे हैं, क्योंकि आने वाले भविष्य में इन्हीं का अस्तित्त्व दाँव पर लगने जा रहा है. जैसे-जैसे यह लेख आगे बढ़ेगा आप समझ जाएँगे कि उपरोक्त बात डराने-धमकाने के लिए नहीं की जा रही, बल्कि इसके पीछे तथ्य-आँकड़े और इतिहास मौजूद है. इन आँकड़ों पर सवाल उठाने वाले संगठनों एवं बुद्धिजीवियों का मानना है कि जनगणना के इन आँकड़ों में हिन्दू जनसँख्या को बढ़ाचढ़ाकर दिखाया गया है. जबकि मुस्लिमों और ईसाईयों की जनसँख्या के आँकड़े बेहद संदिग्ध हैं. इस समूची चर्चा में अधिकाँश वाद-विवाद-प्रतिवाद मुस्लिमों की जनसँख्या को लेकर हो रहा है, परन्तु जिस प्रमुख मुद्दे की तरफ लोगों का ध्यान अभी भी नहीं जा रहा, वह है ईसाई जनसँख्या. मुस्लिमों की जनसँख्या के आँकड़े सामने आते ही तमाम सेकुलर बुद्धिजीवियों ने इस आशय के लेख धड़ाधड़ लिखने आरम्भ कर दिए कि हिन्दू संगठन, मुस्लिम जनसँख्या को लेकर भय का झूठा माहौल पैदा करते हैं. हालाँकि आँकड़ों को गहराई से देखने के बाद इन सेकुलर-वामपंथी बुद्धिजीवियों का यह प्रचार भी नकली ही सिद्ध होगा. लेकिन असली चिंताजनक बात यह है कि ईसाई जनसँख्या के आँकड़े को लेकर कहीं कोई विमर्श नहीं चल रहा, जबकि वेटिकन के आश्रय में चर्च के माध्यम से धर्मांतरण की गतिविधियाँ सर्वाधिक चल रही हैं. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 2011 में भारत में हिन्दू 80.5%, मुस्लिम 13.4%, ईसाई 2.3% हैं, यह तीनों ही आँकड़े संदिग्ध हैं.
चलिए आगे बढ़ने से पहले एक परीक्षण करते हैं… जरा अपनी सामान्य समझ के अनुसार बताईये कि “क्रिस्टोफर पीटर”, “अनुष्का विलियम” और “सुनीता चौहान” में से कौन सा नाम ईसाई है?? ज़ाहिर है कि आप पहले नाम को तो निःसंकोच रूप से ईसाई घोषित कर देंगे, दूसरे नाम पर आप भ्रम में पड़ जाएँगे, लेकिन फिर भी संभवतः उसे ईसाई कैटेगरी में ही रखेंगे… लेकिन सुनीता चौहान जैसे नाम पर तो आप कतई शक ज़ाहिर नहीं कर सकते कि वह ईसाई हो सकती है, लेकिन ऐसा हो रहा है और जमकर हो रहा है. हाल ही में प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी दिनेश कार्तिक ने अपनी बचपन की मित्र दीपिका पल्लीकल से विवाह किया. अगले कुछ दिनों बाद अखबारों के माध्यम से देश को पता चला कि दिनेश-दीपिका का विवाह समारोह पहले एक चर्च में आयोजित किया गया, उसके कुछ दिन बाद हिन्दू रीतिरिवाजों से एक बार पुनः विवाह किया गया. ज़ाहिर है कि यह उनका निजी मामला है, परन्तु इससे आम जनता के मन में जो सवाल उठा, वह ये था कि “दिनेश” और “दीपिका” में से ईसाई कौन है? आखिर इन्हें चर्च में विवाह करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? इन दोनों के नाम से तो यह कतई ज़ाहिर नहीं होता कि इनमें कोई ईसाई भी होगा. जब कुछ लोगों ने खोजबीन की तो पता चला कि दीपिका पल्लीकल ईसाई हैं, तो सब हैरत में पड़ गए. इसलिए प्रमुख बात यह है कि ईसाई जनसँख्या के वर्तमान आँकड़ों से यह पता करना लगभग असंभव है कि “हिंदुओं जैसे नाम रखने वाले” कितने लाख लोग ऐसे हैं, जिन्होंने जनगणना के समय अपना सही धर्म लिखवाया? भारत में कितने लोग हैं जो यह जानते हों कि आंधप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री “राजशेखर रेड्डी” कट्टर ईसाई थे और उनके दामाद अनिल कुमार तो घोषित रूप से वेटिकन के एवेंजलिस्ट (ईसाई धर्म प्रचारक) हैं?? यह एक तरफ हिंदुओं में अज्ञानता का आलम तो दर्शाता ही है, दूसरी तरफ हिन्दू दलितों एवं ग्रामीणों के धर्मांतरण हेतु वेटिकन की धोखाधड़ी और धूर्तता को भी प्रदर्शित करता है.
पहले हम चंद आँकड़ों पर निगाह डाल लेते हैं, उसके बाद इस झूठ और धूर्तता के कारणों को समझने का प्रयास करेंगे. 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत के ईसाईयों की जनसँख्या पन्द्रह राज्यों में बढ़ी है, जबकि छः राज्यों में कुछ कम हुई है. अरुणाचल प्रदेश में ईसाई जनसँख्या 18.70 से बढ़कर 30.30 प्रतिशत हो गई है, मणिपुर में ईसाईयों की संख्या 34% से बढ़कर 41.30% हुई है, जबकि मेघालय में ईसाई जनसँख्या 70.30% से बढ़कर 74.60% हुई है. उत्तर-पूर्व के राज्यों में सांख्यिकी और जनसँख्या अनुपात ईसाईयों के पक्ष में किस तेजी से बिगड़ा है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1981 से 2001 के बीच में नागालैंड में हिन्दू जनसंख्या 14.36% से घटकर सिर्फ 7.70% रह गई, जबकि ईसाई जनसँख्या 80.2% से बढ़कर 90% हो गई. ध्यान देने वाली बात यह है कि 1951 में नागालैंड में 52% ईसाई थे. फिर पिछले पचास-साठ वर्ष में नागालैंड में ईसाईयों की जनसँख्या इतनी क्यों और कैसे बढ़ी? क्या ईसाई पंथ अचानक इतना अच्छा हो गया कि नागालैंड के आदिवासी ईसाई बनने के लिए उतावले हो उठे? नहीं… इसका जवाब वही है जो नागालैंड में जमीनी स्तर पर दिखाई देता है, अर्थात आदिवासियों का जमकर धर्मांतरण और बन्दूक के बल पर “नागालैंड फॉर क्राईस्ट” के नारे और पोस्टरों के जरिये दबाव बनाकर. क्या दिल्ली में बैठे और गुडगाँव/नोएडा तक सीमित किसी कथित राष्ट्रीय चैनल पर आपने इस बारे में कोई बहस या रिपोर्ट देखी-सुनी है? नहीं देखी होगी, क्योंकि विकृत सेकुलरिज़्म द्वारा “साम्प्रदायिकता” का अर्थ सिर्फ और सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिकता से लिया जाता रहा है.
बहरहाल आगे बढ़ते हैं… जनगणना के सबसे चौंकाने वाले आँकड़े यह हैं कि अब भारत के सात राज्य ऐसे हैं, जहाँ हिंदुओं की जनसँख्या 50% से नीचे आ चुकी है, अर्थात वे तेजी से वहाँ अल्पसंख्यक बनने की कगार पर हैं. जम्मू-कश्मीर में हिन्दू 28.4%, पंजाब में 38.5%, नागालैंड में 8.7%, मिजोरम में सिर्फ 2.7%, मेघालय में 11.5%, अरुणाचल प्रदेश में 29% और मणिपुर में 41.4%. सुदूर स्थित केंद्रशासित लक्षद्वीप में हिंदुओं की संख्या सिर्फ 2.8% है. इस स्थिति में हमारे देश के कथित बुद्धिजीवियों को जो प्रमुख सवाल उठाना चाहिए वह ये है कि क्या इन राज्यों में हिंदुओं को “अल्पसंख्यक” के तौर पर रजिस्टर्ड किया जा चुका है? क्या इन राज्यों में हिंदुओं को वे तमाम सुविधाएँ मिलती हैं, जो अन्य राज्यों में मुस्लिमों और ईसाईयों को मिलती हैं? क्या इन राज्यों की योजनाओं एवं छात्रवृत्तियों में गरीब हिन्दू छात्रों एवं कामगारों को अल्पसंख्यक होने का लाभ मिलता है?? परन्तु ऐसे सवाल पूछेगा कौन? “तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी” तो मोदी सरकार को कोसने में लगे हुए हैं और नेशनल मीडिया(??) को इंद्राणी मामले से ही फुर्सत नहीं है.
ईसाईयों की जनसंख्या के जो आँकड़े ऊपर दिए हैं वे प्रमुखता से उत्तर-पूर्व के राज्यों से हैं, चूँकि ये आँकड़े घोषित रूप में हैं. परन्तु इससे भी बड़ी समस्या उस ईसाई जनसँख्या की है, जिसने अपना धर्म छिपा रखा है, अघोषित रूप से वे ईसाई हैं, परन्तु हिन्दू नामों के साथ समाज में विचरते हैं. उड़ीसा के कंधमाल की घटना और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को कोई भी भूला नहीं है. वह घटना क्यों हुई थी? ज़ाहिर है ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में जमकर हो रहे ईसाई धर्मांतरण की वजह से. अब यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वेटिकन और चर्च का मुख्य ध्यान भारत के दूरदराज आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों पर होता है, जहाँ ये लोग “सेवा” के नाम पर बड़ी मात्रा में धर्मान्तरण करवा रहे हैं. गुजरात का डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ-बालाघाट, छत्तीसगढ़ का जशपुर, उड़ीसा के कंधमाल जैसे भारत के किसी भी दूरदराज कोने में आप चले जाईये वहाँ आपको एक चर्च जरूर मिलेगा. कई-कई गाँव ऐसे दिखाए जा सकते हैं, जहाँ एक भी ईसाई नहीं रहता, परन्तु वहाँ भी चर्च स्थापित है, ऐसा क्यों और कैसे? वास्तव में ईसाई धर्मांतरण हेतु चर्च, साम-दाम-दण्ड-भेद सभी नीतियाँ अपनाता है, इसके अलावा छल-कपट और धोखाधड़ी भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है. पहले “सेवा” के नाम पर अस्पताल, डिस्पेंसरी, स्कूल आदि खोले जाते हैं, फिर वहाँ आने वालों का धीरे-धीरे “ब्रेन वॉश” किया जाता है. चूँकि भारत में गरीबी जबरदस्त है, इसलिए चर्च को पैसों के बल पर धर्मान्तरण करवाने में अधिक समस्या नहीं आती. एक तो इनका “कथित सेवाकार्य” और दूसरे धन का लालच, इस चक्कर में बड़ी आसानी से भोले-भाले आदिवासी इनके जाल में फँस जाते हैं. जहाँ धन की जरूरत नहीं है, उदाहरणार्थ नागालैंड-मिजोरम जैसे इलाके जहाँ ईसाईयों की जनसँख्या 90% के आसपास है, वहाँ आदिवासियों को डरा-धमका कर ईसाई बनाया जाता है, जबकि केरल में कई ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ छल-कपट का सहारा लिया जाता है. केरल में ईसाईयों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में जो चर्च स्थापित किए जा रहे हैं, वे छोटी-छोटी झोंपडियों में हैं, जिन पर “माता मरियम का मंदिर” लिखा जाता है, वहाँ पर “भगवा वस्त्र पहने हुए पादरी” मिलेगा ताकि ग्रामीणों में भ्रम पैदा किया जा सके. उसके बाद धोखाधड़ी के सहारे धीरे-धीरे धर्मांतरण करवा लिया जाता है. जिस प्रकार देश के कई जिले अब मुस्लिम बहुल बन चुके हैं इसी प्रकार देश के कई जिले अब ईसाई बहुल भी बन चुके हैं. निकोबार द्वीप समूह में 67% ईसाई हैं, कन्याकुमारी जिला 44.5% ईसाईयों को समेटे हुए है और केरल के कोट्टायम जिले में ईसाई जनसँख्या 44.6% है. इनके अलावा तमिलनाडु के तूतीकोरिन, तिरुनेलवेली जैसे जिलों में बड़े-बड़े विराट चर्चों का निर्माण कार्य आसानी से देखा जा सकता है. यह तो हुई ईसाई जनसँख्या की बात, जरा हम पहले मुस्लिम जनसँख्या को भी संक्षेप में देख लें, फिर वापस आएँगे ईसाईयों द्वारा हिन्दू नाम धरकर छल करने की समस्या के बारे में.
2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिमों की संख्या 14.8% ही बताई जा रही है. यह आँकड़ा भी भ्रामक और जानबूझकर फैलाया जा रहा मिथ्या तथ्य है. क्योंकि केरल, असम, बंगाल, उत्तरप्रदेश, दिल्ली-बिहार जैसे राज्यों में जिस रफ़्तार से मुस्लिम जनसँख्या बढ़ रही है, यह आँकड़ा विश्वसनीय नहीं हो सकता. असम में मुस्लिम जनसँख्या का प्रतिशत 30.9 से बढ़कर 34.2, पश्चिम बंगाल में मुस्लिम प्रतिशत 25.2 से बढ़कर 27.9, केरल में 24.7 प्रतिशत से बढ़कर 26.6 प्रतिशत जबकि उत्तराखंड में यह प्रतिशत 11.9 से 13.9 हो गया है. असम के धुबरी जिले में मुस्लिम जनसँख्या 80% तक पहुँच चुकी है, इसी प्रकार पश्चिम बंगाल के लगभग 17 जिले ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम जनसंख्या 40% के आसपास है, जबकि केरल के मलप्पुरम जैसे जिले 50% मुस्लिम आबादी वाले हो चुके हैं. बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या पर तो कई संगठन अपनी चिंताएँ जता ही रहे हैं, इसलिए इस लेख में उस पर अधिक चर्चा नहीं की जा रही. असली समस्या है ईसाईयों द्वारा हिन्दू नामधारी होकर अपना धर्म छिपाना.
हम सभी जानते हैं कि जब भी कोई मुस्लिम मतांतरण स्वीकार करता है तो उसे सबसे पहले अपना नाम बदलना होता है. किसी भी मुस्लिम नाम को समझना एक आम हिन्दू के लिए कतई भ्रामक या कठिन नहीं होता. परन्तु वेटिकन इस मामले में बहुत चतुर है, अर्थात जब कोई ग्रामीण या शहरी हिन्दू अथवा आदिवासी धर्मान्तरित होकर ईसाई बनता है तो उसे अपना नाम बदलने की कोई बाध्यता नहीं होती. इसीलिए हम और आप दीपिका पल्लीकल को हिन्दू ही मानते-समझते रहते हैं. भारत के सिर्फ ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी ऐसे लाखों-करोड़ों ईसाई हैं जो “गुपचुप” ईसाई बन चुके हैं, लेकिन यह बात सरकार को पता ही नहीं है. क्योंकि ना तो इन्होंने अपना हिन्दू नाम बदला है, और ना ही जनगणना के समय अपना धर्म ईसाई घोषित किया है. इन्होंने सिर्फ अपने घरों से हिन्दू देवी-देवताओं को बाहर करके यीशु और क्रॉस लगा लिया है, अपनी पूजा पद्धति बदल ली है. अब सवाल उठता है कि इन्होंने ऐसा क्यों किया? अपना धर्म छिपाकर इन्हें क्या हासिल होगा? इसका जवाब है हमारे देश की आरक्षण पद्धति एवं आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था.
जैसा कि सभी जानते हैं, भारत के संविधान में आरक्षण की व्यवस्था हिन्दू, सिख और बौद्ध धर्म के SC (Scheduled Caste) दलितों को प्रदान की गई है. जबकि आदिवासियों को जो विशेष ST (Scheduled TRIBE) दर्जा हासिल है, उसमें वे किसी भी धर्म के तहत ST ही माने जाएँगे और उनका आरक्षित दर्जा बरकरार रहेगा. चर्च और धर्मांतरण कर चुके ईसाईयों की चालबाजी, धोखाधड़ी और कपट पद्धति यह होती है कि यदि धर्मान्तरित हो चुके दलितों ने घोषित कर दिया कि वे अब हिन्दू नहीं रहे, ईसाई बन चुके हैं तो वे तत्काल आरक्षण के सभी लाभों से वंचित हो जाएँगे. परन्तु यदि वे अपना हिन्दू नाम नहीं बदलें और हिन्दू SC-ST-OBC बनें रहें तो उन्हें नियमों के तहत आरक्षण मिलता रहेगा. भारत के संविधान और हिन्दू दलितों के साथ यही खेल हो रहा है. यह घातक खेल भारत की जनगणना के आँकड़ों को भी प्रभावित कर रहा है. 2011 के आंकड़ों के अनुसार हिन्दू जनसँख्या 80% के आसपास है, लेकिन वास्तव में यह बहुत ही कम है क्योंकि धर्मान्तरित दलितों ने अपना ईसाई धर्म घोषित नहीं किया है. राजशेखर रेड्डी और उनके दामाद की मेहरबानियों की वजह से तटीय आंध्रप्रदेश का 30% से अधिक हिस्सा ईसाई बन चुका है, लेकिन वे बड़े आराम से हिन्दू नामधारी बने हुए हैं तथा हिंदू दलितों के आरक्षण का हक छीन रहे हैं. भारत के तथाकथित “दलित चिंतकों” को इस बात की या तो फ़िक्र नहीं है, या शायद ऐसा हो कि फिलहाल भारत में जो दलित नेतृत्त्व है उनमें भी कई धर्मान्तरित हो चुके हैं. दिल्ली में चर्च के प्रमुख सत्ता केन्द्र में जॉन दयाल जैसे कट्टर ईसाई और NGOs पोषित-पल्लवित एवेंजेलिस्टो का गिरोह पिछले दस वर्ष से लगातार UPA सरकार पर दबाव बनाए हुए था कि “दलित ईसाईयों” को भी आरक्षण का लाभ मिले. इसके लिए संविधान संशोधन करना जरूरी है और यह UPA सरकार के लिए संभव नहीं था.
अब वर्तमान स्थिति यह है कि लाखों-करोड़ों की संख्या में अनुसूचित जाति (SC) के लोगों ने पैसा लेकर ईसाई धर्म तो अपना लिया है, परन्तु नाम हिन्दू ही रखा है और जनगणना में अपना धर्म भी हिन्दू ही बताया हुआ है. ये लोग मजे से दोहरा लाभ ले रहे हैं, यानी वेटिकन से पैसा और सुविधाएँ तथा संविधान के तहत हिन्दू दलितों के हिस्से का आरक्षण भी. ऐसे में हो यह रहा है कि आरक्षण का जो वास्तविक हकदार है उसे आरक्षण नहीं मिल पाता. जिस दिन देश के दुर्भाग्य से “दलित ईसाईयों”(??) को भी आरक्षण मिलने लगेगा, उसी दिन ये सभी छद्म नामधारी अपने असली रूप में आ जाएँगे और खुद को हिन्दू धर्म से अलग घोषित कर देंगे. ऐसे लोग तन-मन-धन से तो काफी पहले ईसाई बन चुके हैं. हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्पराओं को सतत कोसने और गाली देने का काम तो वे आज भी “प्रगतिशीलता” के नाम पर कर ही रहे हैं और साथ ही आरक्षण की मलाई भी खा रहे हैं.
जनगणना के फॉर्म में सिर्फ छह धर्मों की घोषणा करने को कहा गया है, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन. इनके अलावा व्यक्ति यदि किसी और धर्म का है तो वह “अन्य” लिख सकता है. देश के कई हिस्सों में तथाकथित आधुनिक शिक्षा की बदौलत अमेरिका की देखादेखी एक “नया वर्ग” पैदा हो गया है, जो खुद को “एथेइस्ट” (अर्थात किसी भी धर्म को नहीं मानने वाला अथवा नास्तिक). दक्षिण भारत और विशेषकर तमिलनाडु में करूणानिधि जैसे नेता स्वयं को “नास्तिक” कहते हैं और रामसेतु को तुड़वाने के लिए पूरा जोर लगा देते हैं. ऐसे तथाकथित नास्तिकों की संख्या भी लाखों में पहुँच चुकी है जिन्होंने जनगणना में स्वयं को हिन्दू घोषित नहीं किया है, परन्तु वास्तविकता यह है कि इनमें से अधिकाँश संख्या में धर्मान्तरित ईसाई ही हैं. इनमें तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता, नक्सल समर्थक वामपंथी और स्वयं को प्रगतिशील कहलाने वाले शहरी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं. धर्मांतरण के लिए चर्च सारे हथकण्डे अपना रहा है, जहाँ एक तरफ वह मानवाधिकार समूहों, धर्म का अधिकार माँगने वाले समूहों तथा हिन्दू संस्कृति का हरसंभव और हर मुद्दे पर विरोध करने वाले NGOs को पैसा देकर पोषित कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ वह हिंदुओं में फ़ैली जाति व्यवस्था, कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के खिलाफ काम कर रहे समूहों को भड़काकर तथा उन्हें धन मुहैया करवाकर हिंदुओं के बीच खाई को और चौड़ा करने का प्रयास भी कर रहा है. दुःख की बात यह है कि अपने इस कुत्सित प्रयास में चर्च काफी सफल हुआ है, और मजे की बात यह है कि अज्ञानतावश दलित संगठन एवं दलित बुद्धिजीवी चर्च को अभी भी अपना खैरख्वाह मानते हैं, जबकि चर्च उन्हीं के पीठ पीछे उन्हीं की जातियों में सेंध लगाकर उन्हें तोड़ रहा है. एक छोटा उदाहरण, वर्ष 2013-14 में सिर्फ तीन देशों अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी ने भारत में काम कर रहे ईसाई समर्थक NGOs तथा चर्च संबंधी मामलों को “आधिकारिक” रूप से 1960 करोड़ रुपयों की आर्थिक मदद पहुँचाई है. FCRA (विदेशी मुद्रा अधिनियम) के ये आँकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं. जिस तरह से वेटिकन, धर्मांतरण करवाने वाली संस्थाओं, एवेंजेलिस्ट कार्यकर्ताओं को अरबों रुपया पहुँचा रहा है, उसी से ज़ाहिर है कि इनका मकसद सिर्फ “सेवा” तो कतई नहीं हो सकता. जब नरेंद्र मोदी सरकार ने विदेशी मुद्रा अधिनियम में संशोधन करके विदेश से आने वाले धन का उपयोग लिखित स्वरूप में बताने को अनिवार्य बना दिया तथा दुनिया भर में सबसे बड़े चन्दा देने वाली दो संस्थाओं अर्थात “ग्रीनपीस” और “फोर्ड फाउन्डेशन” पर लगाम कसना आरम्भ किया, तब हल्ला मचाने और छाती पीटने वालों में सबसे आगे यही NGOs थे, जिनकी रोजी-रोटी धर्मान्तरण से चलती है. समस्या यह है कि भारत के गरीब हिन्दू दलित (और इनके नेता तथा संगठन) अभी चर्च की इस चालबाजी को समझ नहीं पा रहे.
असल में जनगणना के समय जो फॉर्म भरा जाता है उसमें माँगी जाने वाली जानकारी बिलकुल सटीक प्रश्नों पर आधारित होनी चाहिए. धर्म के सम्बन्ध में “अन्य” वाला कॉलम तो बिलकुल हटा ही दिया जाना चाहिए. जिसका जो भी धर्म हो वह स्पष्ट लिखे, नास्तिक हो तो नास्तिक लिखे. इसके अलावा प्रत्येक परिवार में जितने भी अवयस्क हैं उनका धर्म संबंधी कॉलम अलग होना चाहिए. ऐसा करना इसलिए जरूरी है, ताकि यदि वह नाबालिग दो भिन्न धर्मों के माता-पिता से पैदा हुई संतान है तो उस पर पिता का धर्म लादने की जरूरत नहीं. हो सकता है कि अगली जनगणना में वह संतान वयस्क हो जाए और माता की तरफ का या दूसरा कोई धर्म अपना ले. साथ ही केन्द्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी कीमत पर “दलित ईसाईयों” (अर्थात धर्मान्तरण कर चुके) को आरक्षण का लाभ कतई ना मिलने पाए, चाहे इसके लिए संविधान संशोधन ही क्यों ना करना पड़े. इसी प्रकार OBC एवं दलितों के बीच यह जागरूकता फैलाने की भी आवश्यकता है कि आरक्षण के वास्तविक हकदार सिर्फ और सिर्फ वे ही हैं, ना कि धर्म बदल चुके उनके सजातीय बंधु. इन्हीं जातियों और समाजों के बीच में छिपे बैठे ईसाईयों को पहचान कर उन्हें आरक्षण से बाहर किया जाना जरूरी है, ऐसा करने से “वास्तविक हिन्दू दलित-ओबीसी” के आरक्षण प्रतिशत में अपने-आप वृद्धि हो जाएगी. दावे के साथ कहा जा सकता है कि यदि सरकार किसी दिन यह कह दे कि धर्मान्तरित हो चुके दलित-ओबीसी को भी हिंदुओं की तरह आरक्षण मिलेगा, तो वेटिकन के निर्देश पर ये छद्म हिन्दू नामधारी नव-ईसाई ताबड़तोड़ अपने “असली रूप यानी घोषित ईसाई” के रूप में आ जाएँगे और उस समय हिंदुओं को अपनी सही जनसँख्या और औकात पता चल जाएगी.
अब वर्तमान स्थिति यह है कि आधिकारिक रूप से भारत में हिन्दू जनसँख्या जो 2001 की जनगणना में 85% थी, अब 2011 में 80% से नीचे आ चुकी है. लेकिन क्या यह भी वास्तविक आँकड़ा है?? मूलनिवासी आंदोलन के नाम से जो भौंडा और घृणा फैलाने वाला आंदोलन समाज के अंदर ही अंदर चल रहा है, वे लोग खुद को हिन्दू मानते ही नहीं हैं. हिन्दू नामधारी लेकिन धर्मान्तरित हो चुके दलित भी ईसाई हो गए, हिन्दू नहीं रहे. नास्तिकतावादी और वामपंथी भी सिर्फ नाम के लिए हिन्दू हैं, यानी वे भी हिन्दू धर्म से अलग हुए. दक्षिण की द्रविड़ पार्टियों के नेता और समर्थक भी खुद को हिन्दू नहीं मानते. बांग्लादेश से अनाधिकारिक रूप से लगभग तीन करोड़ घुसपैठिये भारत में बैठे हैं, जिनके पास राशनकार्ड और आधार कार्ड भी है, इस 2% को भी जोड़िए… तो अब बताईये इस देश में “वास्तविक हिन्दू जनसंख्या” कितनी हुई? क्या यह 50-60% के नीचे नहीं है?? तो फिर जनगणना के ऐसे भ्रामक आँकड़े जारी करने की क्या तुक है? और क्या एक सभ्य देश को ऐसा करना चाहिए? जबकि सबसे बड़ा और डरावना सवाल यह है कि आखिर स्वयं “हिन्दू” लोग और “हिन्दू संगठन” छद्म रूप धारण किए हुए हिंदुओं की इस विकराल होती समस्या के प्रति क्या कर रहे हैं?? उनका रुख क्या है? उनकी योजना क्या है??