कई पशु और पक्षी मनुष्य के मित्र की तरह है। इन्हीं में से एक है- बटेर। बटेर का मनपसंद खाना दीमक है। लिहाजा, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि मनुष्य के लिए खतरनाक दीमक को चट कर बटेर किस तरह से आधुनिक मानव के लिए अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हैं। लेकिन इन दिनों बटेरों की प्रजाति खतरे में है। इसका कारण महज यह है कि आजमी ही अपनी जीभ की खातिर बटेर को चट करने में लगा हुआ है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में पाए जाने वाले दुर्लभ बटेर (लावा प्रजाति) इन दिनों स्थानीय लोगों के थाली के स्वाद में समा कर विलुप्त हो रहे हैं। स्थानीय लोगों को इसका महत्व पता नहीं है। वे इसे मार कर मांस की तरह खाने में उपयोग कर रहे हैं। मुंह को लगे स्वाद को भुनाने के उद्देश्य से कुछ स्थानीय शिकारी सक्रिय होकर बटेरों का शिकार भी कर रहे हैं।
जब संख्या बहुत ज्यादा खत्म हुई तो वन महकमा सक्रिय हुआ। स्थानीय ग्रामीणों को समझाना शुरू किया कि बटेर समेत अन्य पशु पक्षियों को मारना न केवल कानूनन जुर्म हैं, बल्कि साथ ही प्रकृति की ओर से मिले अपने ही सहयोगी मित्र की हत्या कर रहे हैं। इनका होना जरूरी है। लेनिक इसका असर जनमानस में नहीं है। हालिया घटना है, शिकारियों के एक गिरोह बीस बटेरों को पकड़ कर बेचने ले जा रहा था। धरे जाने पर वे बटेर छोड़ कर भाग गए। वन विभाग ने इन्हें वापस जंगल में छोड़ा। वन विभाग के डीएफओ अनिल सोनी कहते हैं कि लोगों में जागरूकता के लिए विभाग अभियान चला रहा है। समय समय पर ग्रामीणों को यह समझाइश दी जाती है कि बस्तर के बटेर दुर्लभ हैं। इन्हें मारना अपराध है, पर ग्रामीण समझाइश के दौरान हां में हां मिलाते हैं। कुछ के मन में बटेरों के प्रति दाया भाव आ जाती है तो कुछ अभी भी मौका मिलने पर मार कर खा जाते हैं। अधिकतर अभी भीशिकारियों से खरीद कर उनका मांस खाते हैं। महज 20 से 100 रुपये के लालच में शिकारी इनका शिकार कर रहे हैं। डीएफओ अनिल सोनी कहते हैं कि स्थानीय लोगों के सूचना के आधार पर ऐसे शिकारियों की धरपकड़ की जाती है। जप्त बटेरों को जंगल में छोड़ दिया जाता है।
ग्रामीण बटेर (लावा) का उपयोग स्वादिष्ट भोजन के रूप में करते हैं, और इसी कारण इसका शिकार बड़े पैमाने पर करते है। इसे ग्रमीण कम ओर शहरी लोग अधिक दाम देकर खरीदते हैं। इसलिए ग्रामीण शिकारी अधिक रुपए कमाने के लिए बड़े पैमाने पर इसका शिकार करने करते हैं, जिसके चलते वर्तमान में बटेर (लावा) प्रजाति विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है।
बटेर आकार में पंडुक के बराबर होता है। स्थूलकाय, धूमिल भूरे रंग का पक्षी है। तीतर की तरह इसका रूप होता है। खेतों या घास के मैदान में जोड़े या झुंड के रूप में तथा भारत में पश्चिमी सीमा से मनीपुर तक उत्तरी तथा मध्यवर्ती प्रदेश में ज्यादा मिलते हैं। बताया जाता है कि बस्तर क्षेत्र में मिलने वाले बटेर लावा प्रजाति के दुर्लभ हैं। बटेर का प्रजनन का माह अप्रैल, मई है। मैदानी इलाकों में आमतौर पर बटेर गेहूं के खेत में अंडे देते है। किसानों द्वारा गेहूं काटने के बाद बचे हुए फानों में आग लगा दी जाती है। इससे बटेर बटेर के अंडे, बच्चें आग की भेंट चढ़ जाते है। छत्तीसगढ़ में चावल के खेतों में इनका बसेरा होता है।