कांग्रेस पार्टी द्वारा लोकसभा 2014 के चुनाव हेतु पार्टी का घोषणापत्र जारी कर दिया गया है। यह पहला अवसर है जबकि पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में कई ऐसे विषयों को शामिल किया गया जिनपर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने देश के कई भागों में घूम-घूम कर आम लोगों से सलाह-मशविरा कर जनता की सलाह से घोषणा पत्र तैयार करने का वादा किया था। इस घोषणा पत्र में जहां महिला आरक्षण तथा सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक जैसे लंबित विषयों को पुन: जगह दी गई है वहीं स्वास्थय व शिक्षा जैसे ज़रूरी विषयों को भी पूरी गंभीरता के साथ शामिल किया गया है। कांग्रेस पार्टी के नेताओं का मानना है कि यह घोषणा पत्र पार्टी का जनाधार बढ़ाने में तथा मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होगा। इस चुनावी घोषणा पत्र को कांग्रेस पार्टी द्वारा चुनाव पूर्व छोड़ गए अपने तरकश के आखिरी तीर के रूप में भी देखा जा रहा है।
दूसरी ओर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के शासनकाल में विशेषकर गत् पांच वर्षों के दौरान हुए घोटालों तथा इसी दौरान मंहगाई के चरम पर पहुंचने जैसे मुद्दों से बेहद उत्साहित नज़र आ रही है। भाजपा का मानना है कि चूंकि गत् दो दशकों से देश एक के बाद एक यूपीए या एनडीए का शासन देख रहा है इसलिए हो न हो मंहगाई व भ्रष्टाचार से त्रस्त भारतीय मतदाताओं ने कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को उखाड़ फेंकने तथा भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार को सत्ता में लाने का मन बना लिया है।
उधर कांग्रेस व भाजपा के पारंपरिक सपनों से अलग नवोदित राजनैतिक दल आम आदमी पार्टी ने इन्हीं भारतीय मतदाताओं के समक्ष एक सवाल यह खड़ा कर दिया है कि मतदाता लूट-खसोट, भ्रष्टाचार, मंहगाई, सांप्रदायिकता, बेरोज़गारी, परिवारवाद, रिश्वतखोरी, राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ जैसा पारंपरिक सत्ता परिवर्तन मात्र चाहते हैं या फिर उपरोक्त विसंगतियों से मुक्त एवं साफ-सुथरा गांधी व भगतसिंह के सपनों का स्वराज्य देने वाला तथा केवल राजनैतिक नहीं बल्कि व्यवसथा परिवर्तन जैसा विकल्प देने वाला, ईमानदार व समर्पित लोगों का शासन? बहरहाल यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि देश के मतदाता फिलहाल सत्ता परिवर्तन चाह रहे हैं अथवा तत्काल व्यवस्था परिवर्तन की ज़रूरत भी महसूस कर रहे हैं। इस बीच भाजपा ने देश को कांग्रेस मुक्त किए जाने का नारा दे डाला है। भाजपा अपनी भीतरी संगठनात्मक फूट व लाल कृष्ण अडवाणी व जसवंत सिंह जैसे पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं की नाराज़गी के बावजूद कांग्रेस के विघटन तथा कांग्रेस छोड़कर जाने वाले ‘जयचंदों’ से बेहद उत्साहित है। पार्टी नीतियों व सिद्धांतों को दरकिनार कर जहां जसवंत सिंह जैसे कई वरिष्ठ नेताओं को भाजपा पार्टी प्रत्याशी नहीं बना रही है वहीं कांग्रेस व अन्य दलों के दलबदलुओं के लिए भाजपा ने लाल क़ालीन बिछा रखी है।
ऐसे में सवाल यह है कि अपनी ही पार्टी में छुपे जयचंदों की शिकार कांग्रेस पर छाया संकट पार्टी को कहां ले जाएगा? क्या पार्टी छोड़कर जाने वाले नेताओं के चलते कांग्रेस पार्टी वास्तव में अपने अस्तित्व के संकट से जूझने की स्थिति में आ खड़ी होगी? क्या भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के निर्माण के सपने पूरे हो जाएंगे? क्या सोनिया गांधी, राहुल गांधी तथा प्रियंका गांधी जैसे नेहरू-गांधी परिवार के वर्तमान क्षत्रपों में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी तथा संजय गांधी जैसा आकर्षण अब नहीं रहा या फिर देश की जनता नेहरू-गांधी परिवार के अपने पारंपरिक मोह को भंग कर देश को मंहगाई व भ्रष्टाचार मुक्त होते देखना चाह रही है? और इसके लिए उसे अब दूसरे विकल्पों की तलाश है? जहां तक कई कांग्रेस नेताओं के दलबदल करने अथवा पार्टी छोड़कर जाने का प्रश्र है तो यह कोई नया या अनूठा घटनाक्रम नहीं है। सच पूछा जाए तो अधिकांश भारतीय नेता देखने में जितने सफेदपोश, सभ्य, सिर पर गांधी टोपी रखे व हाथ जोडऩे की मुद्रा में अपनी फोटो, पोस्टर्स व बोर्डों पर लगाए नज़र आते हैं, दरअसल भीतर से वैचारिक व सैद्धांतिक रूप से यह लोग उतने ही रहस्यमयी, संदिग्ध, मौकापरस्त, स्वार्थी तथा व्यवसायिक प्रवृति भी रखते हैं।
अधिकांश भारतीय नेता सत्ताशक्ति के भूखे रहते हैं। ऐसे लोग सत्ता को जनसेवा या राष्ट्रसेवा का माध्यम समझने के बजाए अपने व अपने परिवार के जीविकोपार्जन का साधन समझते हैं। और ऐसी ही प्रवृति के लोग चुनाव का समय $करीब आने पर विचारधारा,नीति व सिद्धांतों को खंूटी पर लटका कर अपने राजनैतिक लाभ के रास्ते तलाशते हुए पूरी तरह सौदेबाज़ी कर अन्य दलों में शामिल हो जाते हैं। उधर अन्य दल ऐसे ‘जयचंदों’ को अपने साथ इसलिए शामिल कर लेते हैं ताकि उनकी अपनी पार्टी को मज़बूती मिले और दूसरी पार्टी कमज़ोर हो सके। देश के कई चुनाव क्षेत्रों में यह तमाशा देखा जा रहा है कि जो व्यक्ति 2009 में कांग्रेस पार्टी से चुनाव मैदान में उतरा था वही व्यक्ति 2014 में भाजपा अथवा किसी दूसरे दल से चुनाव लड़ रहा है। कल का उदारवादी आज दक्षिणपंथी बन चुका है। ऐसा नहीं है कि केवल कांग्रेस पार्टी को ही छोड़कर नेता भाजपा या अन्य दलों में जाते हों। ऐसे दलबदल कई पार्टियों में देखे जा सकते हैं। यह किसी एक पार्टी का नहीं बल्कि अधिकांश भारतीय नेताओं के स्वभाव में शामिल है।
हां इतना ज़रूर है कि देश की सबसे पुरानी व सबसे बड़ी तथा पूरे देश में अपना प्रभाव रखने वाली कांग्रेस पार्टी को आंतरिक फूट,दलीय विभाजन, दलबदल तथा जयचंद सरीखे, ग़द्दार नेताओं से कुछ ज़्यादा ही रूबरू होना पड़ता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस पार्टी देश की एक अकेली ऐसी पार्टी है जिसे गत 6 दशकों के भीतर सबसे अधिक बार विभाजन का सामना करना पड़ा। सबसे अधिक दलबदलू तथा ग़द्दार नेता इसी पार्टी में पाए गए। यहां तक कि आज देश गठबंधन सरकार के जिस दौर से गुज़र रहा है उसका कारण भी कांग्रेस पार्टी के ही विभीषण सरीखे एक स्वर्गीय नेता रहे हैं। अन्यथा शायद भारत में गठबंधन सरकारों की राजनीति की बुनियाद ही न पड़ी होती। मोरारजी देसाई, नीलम संजीवा रेड्डी, जीके मुपनार, ममता बैनर्जी, अर्जुन सिंह, वीपी सिंह, शरद पवार, चौधरी भजन लाल, बंसीलाल, नारायणदत्त तिवारी, वीरेंद्र पाटिल, देवराज अर्स जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता कांग्रेस पार्टी छोड़कर आते-जाते रहे हैं। निश्चित रूप से इस दलबदल या पार्टी त्यागने के चलते कांग्रेस पार्टी कई बार कमज़ोर भी हुई है। परंतु इतने विभाजन के बावजूद तथा अपने-आप में इतने अधिक जयचंदों, मीरजाफरों तथा विभीषणों के पालन-पोषण के बाद भी कांग्रेस पार्टी आज भी देश का सबसे बड़ा राजनैतिक संगठन है।
परंतु वर्तमान समय में जबकि दुनिया के कई देशों में केवल सत्ता ही नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की आंधी चल रही हो ऐसे में कांग्रेस पार्टी को अपने-आपको अपने पुराने,मज़बूत व संगठित स्वरूप में रख पाना कहां तक संभव हो सकेगा? कांग्रेस ने $खासतौर पर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने डा० मनमोहन सिंह की योग्यता तथा अर्थशास्त्र में उनकी $काबिलियत के आधार पर उन्हें दो बार देश का प्रधानमंत्री बनने का अवसर दिया। इन दस वर्षों में देश ने राष्ट्रीय राजमार्गों पर भले ही कितना विकास किया हो, शहरीकरण कितना ही अधिक विस्तृत क्यों न हो गया हो, शहरी लोगों के रहन-सहन का स्तर कितना ही ऊंचा क्यों न उठा हो, परंतु देश का आम आदमी या तो दिखावे की इस प्रतिस्पर्धा में शामिल होकर क़जऱ् के बोझ तले दबता जा रहा है या फिर $गरीबी और बेरोज़गारी का पहले की ही तरह शिकार है। ऊपर से मंहगाई की मार उस आम आदमी को दूसरों के समक्ष हाथ फैलाने या $कजऱ् लेने या फिर कानून व्यवस्था तोडऩे के लिए मजबूर कर रही है। जहां तक मनरेगा योजना के तहत स्थानीय बेरोज़गारों को सौ दिन का रोज़गार देने का प्रश्र है तो निश्चित रूप से यह योजना बेरोज़गारों के लिए बहुत लाभदायक रही है। परंतु इसकी आड़ में भी सरपंच से लेकर अधिकारियों, मंत्रियों तथा योजना से संबंध कार्यालयों द्वारा बड़े पैमाने पर जनता के धन की लूट की गई है। इसी प्रकार सूचना के अधिकार के कानून ने भी जनता में शासकीय पारदर्शिता का एहसास तो ज़रूर कराया है परंतु इस कानून के तहत प्रभावित होने वाले भ्रष्ट बाहुबली व दबंग लोगों द्वारा कई आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं भी की जा चुकी हैं।
अपने संप्रग भाग 2 के शासन में गठबंधन सरकार होने के बावजूद मंहगाई व भ्रष्टाचार का आरोप केवल अपने ऊपर झेलने वाली कांग्रेस पार्टी इन आरोपों के साथ-साथ पार्टी के ग़द्दारों का भी सामना कर रही है। देखना होगा कि आने वाले समय में सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी तथा राहुल गांधी अपने तिलस्मी व्यक्तित्व का प्रभाव मतदाताओं पर छोड़ पाएंगे अथवा नहीं। और पार्टी अपने ग़द्दार नेताओं की परवाह किए बिना आगामी चुनाव में अच्छा प्रदर्शन कर पाएगी अथवा नहीं? जो भी हो कांग्रेस पार्टी इस समय गंभीर संकट के दौर से गुज़र रही है।