यह संभवतः दूसरा मौका है जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी मौन छवि से इतर कड़ा फैसला लेते हुए अंततः मल्टी ब्रांड रिटेल में ५१ फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत दे दी। इससे पूर्व यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के चलते भी मनमोहन सिंह को विकट परिस्थितियों का सामना करते हुए सख्त होना पड़ा था और समाजवादी पार्टी के समर्थन के बाद ही सरकार गिरने से बची थी। देखा जाए तो मल्टी ब्रांड रिटेल में ५१ फीसदी विदेशी निवेश का फैसला सरकार का है किन्तु इस पर मनमोहनी छाप स्पष्ट दृष्टिगत होती है।
हालांकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के सहयोगी और खुदरा व्यापारी मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश का विरोध कर रहे हैं जिससे यह आशंका जताई जा रही है कि इस फैसले पर अमल असान नहीं होगा और शायद यही वजह है कि विपक्षी दलों के मौजूदा विरोध के चलते केंद्र ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का अधिकार राज्यों को दे दिया है। सरकार को उम्मीद है कि उसके फैसले से देश में १० करोड़ डॉलर तक का निवेश हो सकता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत के खुदरा बाजार का कारोबार ३० लाख करोड़ रुपए का है और यह बाजार सालाना २० फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है। भारत में खुदरा बाजार में निवेश की इजाजत के बाद यहां कई ऐसी कंपनियां आ सकती हैं, जिनका सालाना टर्नओवर दुनिया के कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद से कई गुना ज्यादा है। कैबिनेट के फैसले के अनुसार विदेशी रीटेलर १० लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में ही स्टोर खोल सकेंगे तथा १० करोड़ डॉलर से ज्यादा रकम लगाने वाले विदेशी रीटेलर ही देश में निवेश कर सकेंगे जिसकी ५० फ़ीसदी रकम उन्हें गांवों में निवेश करनी होगी। इन कंपनियों को ३० फ़ीसदी उत्पाद छोटी कंपनियों से लेना होगा। कैबिनेट ने फैसला लिया है कि सिंगल ब्रैंड रीटेल में ३० फ़ीसदी सामान भारतीय कंपनियों से लेने के नियम से छूट पाने के लिए कंपनियों को अपनी मैन्यूफैक्चरिंग फैसिलिटी यहां शुरू करनी होगी।
वहीं कैबिनेट ने खस्ताहाल विमानन कंपनियों को राहत पहुंचाने के लिए विदेशी एयरलाइंसों को भारत की निजी एयरलाइनों में ४९ फ़ीसदी की हिस्सेदारी खरीदने की छूट दे दी है तो ब्रॉडकास्टिंग सेक्टर में एफडीआई की सीमा ४९ फ़ीसदी से बढ़ाकर ७४ फ़ीसदी कर दी गई है। माना जा रहा है कि इससे केबल और डीटीएच सेक्टर, मोबाइल टीवी में प्रतिद्वंद्विता बढ़ने से ग्राहकों को फायदा होगा। देश की चार महत्वपूर्ण सरकारी कंपनियों में विनिवेश की मंजूरी भी सरकार ने दे दी है। इनमें ऑयल इंडिया में १० फ़ीसदी, नाल्को में १२.५ फ़ीसदी, हिंदुस्तान कॉपर में ९.५९ फ़ीसदी और एमएमटीसी में ९.३३ फ़ीसदी विदेशी निवेश शामिल हैं। सरकार का कहना है कि ये चारों कम्पनियां इस वक़्त घाटे में चल रही हैं जबकि हकीकत तो यह है कि मात्र हिंदुस्तान कॉपर ही वित्तीय घाटे से जूझ रही है| खैर, डीजल और घरेलू गैस सिलेंडर पर दाम बढोत्तरी करने के अगले ही दिन इतना बड़ा फैसला कर सरकार ने यह तो जता ही दिया है कि राजनीतिक अस्थिरता के बीच वह अब कड़े वित्तीय फैसले लेने से नहीं हिचकेगी| हालांकि सरकार के इस कड़े फैसले की सर्वत्र आलोचना हो रही है किन्तु यदि इस वक़्त भी कड़े फैसले न लिए जाएँ तो अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है|
दरअसल बढ़ते घाटे और अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों द्वारा भारत का दर्ज़ा घटाने पर आमादा होने से बचने के लिए सरकार के पास और कोई चारा भी नहीं था| देखा जाए तो इन आर्थिक सुधारों से सरकार की साख घटने से लेकर उसपर सियासी संकट आ सकता था किन्तु इस बार सरकार ने सियासत से ज्यादा आर्थिक सुधारों पर जोर दिया| विदेशी निवेश से यक़ीनन बाज़ार, निवेश और इकॉनमी में सकारात्मक असर दिखेगा और वैश्विक आर्थिक संकट से बचने में मदद मिलेगी। हालांकि सरकार के इस फैसले का उसके सहयोगियों ने जबरदस्त विरोध करते हुए चेतावनी दे दी है| ममता हों या माया या मुलायम; सभी सरकार के फैसले से नाखुश बताए जा रहे हैं| खैर यह इन तीनों की राजनीति का काफी पुराना ढर्रा है जहां दबाव की राजनीति कर इन्होने अपनी राजनीतिक जमीन को छूटने नहीं दिया है| जहां तक छोटे-मंझोले व्यापारियों व उनसे जुड़े हितों के प्रभावित होने की बात है तो अभी यह तय कर पाना कि विदेशी निवेश से उनका व्यापार चौपट होगा ठीक वैसा ही है जैसे कोई भविष्यवाणी करे कि अमुक दिन प्रलय होगी या अमुक दिन चाँद नहीं निकलेगा| हमारा पडोसी चीन इस बात का सबूत है कि विदेशी निवेश के बाद से वहां की अर्थव्यवस्था में सुधार तो हुआ ही है| यह अलग बात है कि चीन की साम्यवादी सोच आज भी विकास के पैमाने पर भारी पड़ती नज़र आती है|
भारतीय खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का फैसला लेते ही देश में हाहाकार मच गया हो किन्तु जो विदेशी मीडिया प्रधानमंत्री को पूडल या गैर-जिम्मेदार ठहरा रहा था आज उन्हीं के गुणगान में लगा है| फिर जो विदेशी कम्पनियां भारत आने को तैयार हैं वे रिटेल क्षेत्र की उस्ताद मानी जाती हैं और अपने उत्पाद को ग्राहक की पसंद के मुताबिक़ ढालना भी जानती हैं| ऐसी ही कंपनी है वालमार्ट| फार्च्यून ५०० की साल २०१२ सूची में वालमार्ट का दुनिया की सबसे बड़ी और ताकतवर कंपनियों में दूसरा स्थान है। इसने २०११ में कुल ४४७ अरब डालर का कारोबार किया था। इसकी कुल परिसंपत्तियां १९३.४ अरब डालर की हैं, जबकि शेयर बाजार में उसकी कीमत ७१.३ अरब डालर है। दुनिया के १५ देशों में उसके कोई ८५०० सुपर स्टोर्स हैं जिनमें २२ लाख कर्मचारी काम करते हैं। भारत में यह कंपनी थोक व्यापार में भारती एयरटेल के साथ संयुक्त उपक्रम चलाती है। बाजार विशेषज्ञों के मुताबिक, अपने विशाल आकार और कारोबार के कारण वालमार्ट के आगे भारत के छोटे दुकानदारों के टिकने की बात तो दूर, देश के सबसे बड़े कारपोरेट समूहों के लिए भी उससे प्रतियोगिता करना मुश्किल होगा। देश की दस सबसे ज्यादा मुनाफा कमानेवाली कंपनियों का कुल मुनाफा भी वालमार्ट के मुनाफे से कम है। ऐसे में कितनी देशी कंपनियां उससे मुकाबले में टिक पाएंगी, यह कह पाना मुश्किल है। वालमार्ट के मुनाफे का सच यही है कि उसने कभी अपने उत्पाद और ग्राहकों की संतुष्टि के साथ समझौता नहीं किया है| वालमार्ट के भारतीय बाज़ार में आने से उत्पादों के चुनाव की स्वतंत्र के साथ ही आर्थिक चयन का दायरा भी बढेगा| वहीं कार्फुर, मेट्रो, टेस्को, क्रोगर जैसी विदेशी कम्पनियां भी भारत में छाने को बेकरार हैं और इन सबका वैश्विक परिपेक्ष्य में अच्छा ख़ासा मुकाम है|
जहां तक भारत के खुदरा व्यापार की बात है तो इन कंपनियों के बाजार में आने से खुदरा व्यापार को प्रतिस्पर्धी माहौल मिलेगा। फिलहाल खुदरा व्यापार के जरिये भारत में लगभग ४ करोड़ परिवारों की रोजी रोटी चल रही है। १९९८ की आर्थिक गणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में ३८.२ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में ४६.४ प्रतिशत लोग खुदरा व्यापार के क्षेत्र में रोजगार कर रहे थे। वर्तमान में खुदरा व्यापार का सकल घरेलू उत्पाद में लगभग १४ प्रतिशत योगदान है। अनुमान के अनुसार देश में रिटेल यानी की खुदरा बाजार का कारोबार लगभग ३० लाख करोड़ है, जो सालाना २० प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है। जब खुदरा व्यापार को वालमार्ट जैसी कंपनी से चुनौती मिलेगी तो यक़ीनन अधिक से अधिक निवेश होगा और अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी। वैसे भी खुदरा व्यापारियों के डर को राजनीतिक पार्टियां ही हवा दे रही हैं जो सरकार के फैसलों के विरुद्ध आवाज उठाना अपना सर्वोपरि धर्म समझती हैं। सरकार ने विकट परिस्थितियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देकर कड़े आर्थिक सुधारों हेतु मार्ग प्रशस्त किया है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह चेहरा १९९२ में उनके आर्थिक सुधारों की याद दिलाता है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार अब सहयोगी पार्टियों की दबाव की राजनीति से इतर अपने पसंद के आर्थिक सुधारों का मॉडल देश में लागू करेगी ताकि वैश्विक आर्थिक मंदी का असर अर्थव्यवस्था को कमजोर न कर सके।