उनके भक्त उन्हें जगतगुरू मानते हैं और वे भी अपने आपको इसी पदवी से विभूषित किया जाना पसंद करते हैं। हरियाणा में रोहतक जिले के करौंथा गांव हिंसक झड़प की चपेट में आ गया। विवाद के मूल में संत रामपाल के पास वह आश्रम है जिसकी भूमि को लेकर विवाद है। संत रामपाल पर आरोप लग चुका है कि उनके आश्रम में अश्लील कारोबार को बढ़ावा दिया जाता है जिसे लेकर उन पर दबाव है कि वे करौंथा का आश्रम छोड़ दें। लेकिन सुप्रीम कोर्ट से उनके पक्ष में फैसला आने के बाद प्रमुख रूप से आर्य समाज के लोगों ने संत रामपाल के आश्रम पर हल्ला बोल दिया और संघर्ष में तीन लोग मारे गये। निर्मल रानी की तहकीकात-
हमारे देश में न केवल विभिन्न धर्मों,विश्वासों व आस्थाओं के अनुयायी रहते हैं तथा अपनी आस्था के अनुसार अपने धर्मस्थल संचालित करते हैं बल्कि आए दिन यहां किसी न किसी नए आश्रम, नए डेरे या किसी न किसी स्वयंभू अवतारी पुरुष द्वारा अपना नया ‘धर्म उद्योग’ स्थापित करने के समाचार भी मिलते रहते हैं। हमारे देश की भोली-भाली जनता है कि इनमें से तमाम लेाग अपने पारंपरिक धर्मों व विश्वासों से नाता तोड़कर किसी नए स्वयंभू धर्मगुरु द्वारा चलाए जाने वाले नए आश्रमों या डेरों से ही अपनी आस्था जोड़ बैठती है। ऐसा ही एक आश्रम हरियाणा के रोहतक जि़ले के करौंथा गांव में स्थित है। इसके संचालक हैं स्वयंभू संत रामपाल जी।
वैसे तो यह स्वयं को कबीरपंथी विचारधारा का संत बताया करते हैं। परंतु अपनी चतुर बुद्धि व तथाकथित ‘ज्ञान’ के आधार पर इन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से लोगों को यह समझाने की कोशिश शुरु कर दी कि वे एक सिद्ध पुरुष हैं, अवतारी व्यक्ति हैं तथा उन्हें ईश्वर का दर्शन प्राप्त हो चुका हैं। अपने कोमल स्वभाव के अनुसार आम लोग स्वयंभू संत रामपाल के आश्रम से जुडऩे लगे। और धीरे-धीरे उनकी संख्या हज़ारों में पहुंच गई। अभी उनका प्रचार-प्रसार चल ही रहा था तथा अपने अनुयाईयों के मध्य वे अपनी लोकप्रियता को आगे बढ़ा ही रहे थे कि सन् 2006 में अचानक उनका आश्रम संदिग्ध होने लगा। वहां पुलिस ने जब छापा मारा उस समय उनके आश्रम में तमाम अश्लील चित्र, साहित्य तथा महिलाओं से संबंधित तमाम आपत्तिजनक सामग्रियां संत रामपाल की गुप्त गुफा से बरामद हुईं। इस घटना से करौंथा के आसपास के लोगों को बहुत आघात लगा। और ग्रामवासियों ने उसी समय से इस आश्रम को संदेह व घृणा की नज़रों से देखना शुरु कर दिया। करौंथा व आसपास के लोग स्वयभू संत रामपाल के इस आश्रम को क्षेत्र के लिए बदनामी का पर्याय समझने लगे और उसी समय से आश्रम को यहां से हटाए जाने की मांग की जाने लगी। पंरतु चूंकि आश्रम की भूमि की रजिस्ट्री के कागज़ात संत रामपाल के नाम थे इसलिए कानूनी तौर पर उन्हें अदालत की ओर से आश्रम के स्वामित्व के संबंध में बार-बार राहत मिलती रही।
लेकिन पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया जो संत रामपाल के पक्ष में था। इस फैसले के बाद एक बार फिर रोहतक के ग्रामवासी इस आश्रम के विरुद्ध हो गए तथा आश्रम को वहां से हटाए जाने व इसे नष्ट किए जाने की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए। कानून-कायदे का पालन करने की कोशिश में पुलिस, आश्रमवासियों व ग्रामीणों के मध्य संघर्ष की स्थिति पैदा हुई जिसमें दुर्भाग्यवश तीन लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं तथा सौ से अधिक लोग ज़ख्मी हो गए। ग्रामीणों के गुस्से को देखते हुए प्रशासन ने आश्रम को पूरी तरह खाली करवा कर उसे सील कर दिया। परंतु ग्रामीणों का अब भी यही कहना है कि वे आश्रम को नष्ट किए बिना चैन नहीं लेंगे। ऐसे में सवाल यह है कि जब हमारे देश में नाना प्रकार के स्वयंभू धर्मगुरु, डेरा संचालक, आश्रम प्रमुख, कथावाचक तथा तमाम स्वयंभू भगवान अपने धर्मउद्योगों का संचालन बड़ी आसानी से व बेरोकटोक कर रहे हैं फिर स्वयं को संत कबीर का अनुयायी व सिद्धपुरुष बताने वाले संत रामपाल के विरुद्ध जनता का गुस्सा आखिर इस हद तक क्यों फूटा कि ग्रामवासी हिंसा पर उतारू हो गए और उनके आश्रम को ही नष्ट किए जाने की मांग पर अड़ गए। जबकि आमतौर पर हमारे देश में विशेषकर हरियाणा-पंजाब में यह देखा जा सकता है कि प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित होने वाले किसी भी धर्म या विश्वास के डेरे या आश्रम को ग्रामीणों का पूरा सहयोग व समर्थन प्राप्त रहता है। गांव के लोग तन-मन-धन से उनके कार्यक्रमों में सहयोग देते हैं तथा शरीक भी होते हैं। परंतु क्या वजह है कि स्वयंभू संत रामपाल अपने डेरे की स्थापना से लेकर विवादों की ऐसी हिंसक स्थिति आने तक गांव वालों की नज़रों में अपनी इज़्ज़त नहीं बना सके?
दरअसल अपने आपको कबीर का उत्तराधिकारी माननेवाले स्वयंभू संत रामपाल के प्रवचनों व उनके भाषणों को सुनने के बाद तथा उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों का अध्ययन करने के बाद यह पता चलता है कि उनका सबसे अधिक ध्यान मात्र दो बातों पर ही केंद्रित था। एक ओर तो वे अपने-आप को सिद्ध पुरुष तथा ईश्वरीय अवतार बताने की पूरी कोशिश करने में लगे थे। बार-बार वे अपने लेख,पुस्तक, प्रवचन तथा वीडियो आदि के माध्यम से लोगों में यह विश्वास पैदा करने की कोशिश करते थे कि उन्हें ईश्वर ने दर्शन व ज्ञान सबकुछ दे दिया है और जो भी वह कह रहे हैं वही और केवल वही सत्य है। और इसके सिवा सब कुछ झूठ और बकवास है। स्वयंभू संत रामपाल की इस शैली पर भी आम लोगों को कोई विशेष आपत्ति नहीं थी। बजाए इसके सीधे-सादे व अनपढ़ समाज के परेशानहाल लोग उनके इसे ईश्वरीय अवतार बताए जाने के झांसे में आकर उनके अनुयायी भी बनते जा रहे थे। परंतु स्वयंभू संत रामपाल ने समस्याएं पैदा करनी उस समय शुरु कर दीं जबकि इन्होंने अपनी महिमा का बखान करने के साथ-साथ दूसरे धर्मों व विश्वासों के महापुरुषों की भावनाओं को सार्वजनिक रूप से आहत करना शुरु कर दिया। चाहे वह किसी हिंदू धर्म के देवी-देवता की बात हो, पैगंबर हज़रत मोहम्मद की आलोचना हो या स्वामी दयानंद सरस्वती अथवा विवेकानंद की आलोचना करनी हो संत रामपाल अपने प्रवचनों में ऐसे कई महापुरुषों के बारे में अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते हुए तथा स्वयं को इन सबसे बड़ा एवं ज्ञानी व पूज्य बताने की कोशिश करने में लगे देखे गए।
और स्वयंभू संत रामपाल का यही कथन उनके लिए विध्वंसकारी साबित हुआ। हमारे देश की जनता निश्चित रूप से निहायत ही शरी$फ,भोली व दूसरों की आस्थाओं का स मान करने वाली जनता है। इस देश में हिंदू-मुस्लिम, सिख-इसाई प्राय: सभी एक दूसरे के धर्मस्थलों पर आते-जाते हैं, शीश नवाते हैं तथा एक-दूसरे के धार्मिक रीति-रिवाजों व परंपराओं का स मान करते हैं। परंतु यदि इसी जनता के विश्वास को तथा उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की कोशिश की जाए तो उसे बेहद नागवार गुज़रता है। और परिणामस्वरूप करौंथा जैसा कोई बड़ा हादसा सामने आ जाता है। लिहाज़ा स्वयंभू संत रामपाल के आश्रम के विरुद्ध उठे जनाक्रोश के मद्देनज़र देश के अन्य डेरा संचालकों, स्वयंभू धर्मगुरुओं व धर्माधिकारियों तथा अपनी ‘डेढ़ ईंट की अलग मस्जिद’ बनाने वालों को भविष्य में इस घटना से सबक लेते हुए यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि यदि उनके पास हमारे प्राचीन धर्मों के धर्मग्रंथों से अलग व उस से बेहतर देने के लिए कोई निराली शिक्षा व सीख है तो वे उसे अपने अनुयाईयों को अवश्य दें। इसका लाभ वे भी उठाएंगे जो उनके अनुयाई नहीं हैं। परंतु अपनी महिमा का बखान करते समय वे किसी दूसरे की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का अधिकार कतई नहीं रखते। उन्हें किसी दूसरे धर्म व विश्वास के आराध्य या महापुरुष को नीचा दिखाने या उनके विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी ही परिस्थितियां करौंथा जैसी घटनाओं को जन्म देने का सबब बनती हैं। खासतौर पर उस समय ऐसे हालात पैदा होने की संभावना तब और अधिक बढ़ जाती है जबकि दूसरे समुदायों के महापुरुषों या उनकी आस्थाओं का अनादर करने वाले तथाकथित स्वयंभू धर्मगुरु स्वयं संदिग्ध नज़र आने लगें तथा उनके अपने चरित्र व आचरण पर प्रश्रचिन्ह लगने लग जाए।