भीमराव आम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिये कुछ बिन्दु ध्यान में रखना जरुरी है । सबसे पहले तो यह कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं हैं । उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है । वे निरन्तर अपने अनुभव और ज्ञान से सीखते रहे और अपने अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर अपने निष्कर्षों को परिष्कृत करते रहे । द्वितीय उन्होंने जगह जगह अपने लेखन में हिन्दु अथवा हिन्दुओं इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है , लेकिन ज्यादातर ये दोनों शब्द मोटे तौर पर सवर्ण िहन्दु और सवर्ण हिन्दुओं के अर्थ में ही प्रयोग किये गये हैं । इस आधारभूत स्थापना के बाद आम्बेडकर के योगदान का सही मूल्याँकन करना ज्यादा सही होगा ।
आम्बेडकर अस्पृश्य समाज के अधिकारों एवं उनके उत्थान के लिये जीवन भर लड़ते रहे । उन्होंने स्वयं को दलित समाज के उत्थान के लिये समर्पित कर दिया था । परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि वे समाज के केवल एक हिस्से के नेता थे और उसी का प्रतिनिधित्व करते थे , सही नहीं होगा । बाबा साहेब का दृष्टिकोण न तो संकुचित था और न ही वे पक्षपाती थे । दरअसल दलित समाज को सशक्त करने और उन्हें शिक्षित करने का उनका अभियान पूरे हिन्दु समाज को सशक्त करने का ही अभियान था । उनके प्रश्न केवल उस वक्त ही प्रासंगिक नहीं थे बल्कि आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं । समाज का एक महत्वपूर्ण और संख्यावान भाग यदि अशक्त और अशिक्षित रहेगा तो हिन्दु समाज सशक्त कैसे बन सकता है ? उन्होंने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया था कि भारतीय समाज विदेशी आक्रमणकारियों से बार बार हारता क्यों रहा ? उन्होंने इसका उत्तर भी दिया । जिस समाज में सम्पूर्ण समाज के केवल एक हिस्से को ही रक्षा करने का जिम्मा दिया हो और बाकी समाज का देश की सुरक्षा से कुछ लेना देना न हो , वह देश भला दुश्मन का मुकाबला कैसे कर पाता ? शिक्षा का अधिकार जब समाज के केवल एक ही हिस्से को ही हो और बाकी सारा समाज ज्ञान विज्ञान से दूर ही रहने को बाध्य हो वह देश दुश्मन से कैसे लड़ेगा ? आम्बेडकर इसी विषमता को समाप्त करने के लिये ही तो लड़ रहे थे । वह समाज के सबसे प्रताड़ित समाज को सशक्त बनाने का उपक्रम कर रहे थे । उनके इस प्रयास को एकांगी कैसे कहा जा सकता है ? कुछ सौ साल पहले यह प्रयास मध्यकालीन भारतीय दशगुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने भी किया था । वर्ण विहीन और जातिविहीन समाज की स्थापना का प्रयास । चिड़ियों से बाज लड़ाने की उनकी घोषणा , दलित समाज का सशक्तीकरण नहीं तो और क्या था ? इस क्षेत्र में भारतीय समाज निरन्तर प्रयोगशील रहा है । भक्ति काल भी इस प्रकार के प्रयोगों की प्रयोगशाला था । लेकिन उस प्रयोगशाला के प्रयोगधर्मियों ने वर्ण व्यवस्था की सीमा का उल्लंघन उस समय भी नहीं किया था । आम्बेडकर उसी प्रयोगधर्मिता को आगे बढ़ा रहे थे । लेकिन इस बार इस प्रयोग में एक नई नवीनता थी । आज तक ऐसे अधिकांश प्रयोग सवर्ण हिन्दुओं की तरफ़ से ही हुये थे । पहली बार इस प्रयोग का सूत्रधार एक ऐसा व्यक्ति बन रहा था जो स्वयं तथाकथित अस्पृश्य समाज का हिस्सा था और वह वर्ण व्यवस्था को ही चुनौती दे रहा था । जाहिर है इस प्रयोग से समाज में तपश बढ़ती , और वह बढ़ी भी । बहुत से लोग इस बात पर आश्चर्य भी प्रकट करते हैं और दुख भी कि बाबा साहेब की भाषा में तल्खी बहुत है और कडवडाहट भी । भाषा के बारे में उनकी यह टिपण्णी ठीक है , लेकिन ध्यान रखना चाहिये भीतर जितनी पीड़ा , दर्द और वेदना होगी , अभिव्यक्ति की भाषा भी तो उसी के अनुरुप होगी । इस पैरामीटर के हिसाब से तो आम्बेडकर की भाषा व्यवस्थित ही कही जायेगी ।
यह हिन्दु समाज के भीतर हो रहा सागर मंथन ही कहा जायेगा ।महात्मा गान्धी ने तो वर्ण व्यवस्था पर स्टेंड ले लिया था । सभी जानते थे कि वर्ण व्यवस्था अब केवल शास्त्रों में ही रह गई थी । यथार्थ में इसका स्थान जाति ने ले लिया है । जाति रचना बहुत संशलिष्ट व्यवस्था है, जिस पर बहस लाज़िमी है । लेकिन गान्धी वर्ण व्यवस्था को सही ठहराने को लेकर सैद्धान्तिक बहस चलाने में ज्यादा रुचि ले रहे थे । अम्बेडकर मंदिर प्रवेश और तालाब से पानी पीने के अधिकारों को लेकर लड़ रहे थे । इस सारे मंथन से जाहिर है विष भी निकल रहा था । यह जहर भी आम्बेडकर को ही पीना पड़ रहा था । वे बार बार सवर्ण िहन्दुओं से आग्रह कर रहे थे कि विषमता की इन दीवारों को गिरायो , तभी हिन्दु समाज शक्तिवान बन सकेगा । गुस्से में उन्होंने १९३५ में नासिक में यह घोषणा भी कर दी कि वे हिन्दु नहीं रहेंगे । वे सवर्ण हिन्दुयों को हर तरीके से झकझोर रहे थे । अंग्रेजी सरकार ने दलित समाज को क़ानूनी रुप से कुछ अधिकार दिये तो थे । लेकिन अम्बेडकर जानते थे कि यह समस्या क़ानून की समस्या नहीं है । यह तो अपने हिन्दु समाज के भीतर की समस्या है । इसे तो हिन्दु समाज को ही सुलझाना पड़ेगा । वे समाज को कोंच रहे थे । राजनैतिक शक्ति तो जरुरी है ही , लेकिन भीतर का जहर निकालने के लिये तो हिन्दु समाज को ही बिरेचन करना होगा । वे समाज के विभिन्न वर्गों को एक दूसरे के खिलाफ़ खड़ा करने का उपक्रम नहीं कर रहे थे बल्कि वे तो समाज के सभी वर्गों को जोड़ने के अभियान में जुटे थे ।
आम्बेडकर की इस घोषणा से ईसाई मिशनरियां और इस्लामी संस्थाएँ बहुत प्रसन्न हुईं ।उनके लिये तो यह शिकार फांसने जैसी स्थिति थी । हैदराबाद के निजाम ने तो बाबा साहेब को अकूत धन का लालच भी दिया । लेकिन आम्बेडकर नहीं डगमगाये । उनके एक अन्नय शिष्य शंकरानन्द शास्त्री ने लिखा कि उनका मानना था कि मतांतरण से राष्ट्रान्तरण होता है । बाबा साहेब का मत था कि इस्लाम और ईसायत विदेशी मजहब हैं । इन के अपनाने से व्यक्ति अपने देश की परम्परा से टूटता है । कुछ लोग आम्बेडकर पर आरोप लगाते हैं कि वे अंग्रेजों के समर्थक थे । यदि ऐसा होता तो बे अंग्रेजों को खुश करने के लिये ईसाई बनने में देर न लगाते । उनके पटु शिष्य शंकरान्नद शास्त्री ऐसे ही एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं हुये लिखा है कि किसी के सुझाव पर उन्होंने प्रताड़ितों की सहायता करने वाली अमेरिका की कुछ गैर सरकारी संस्थाओं को अपने आन्दोलन की सहायता हेतु लिखा । जाहिर है कि संस्थाओं ने अपनी शर्तें रखी होंगी । बाबा साहेब ने निष्कर्ष निकाला कि ऐसी सब संस्थाएँ धन के बल से भारत में ईसाई मजहब में लोगों को मतान्तरित करने में रुचि रखती हैं , ग़रीब की मदद करने में नहीं ।
तभी देश के सामने एक नये संविधान की रचना का प्रश्न उपस्थित हुआ । अंग्रेजों ने भारत छोड़कर जाने की घोषणा कर दी थी । भारत को अब अपने लिये युगानुकूल एक नई स्मृति की रचना करनी थी । पुरानी स्मृतियां काल बाह्य हो चुकी थीं । इस नई स्मृति का रचियता कौन हो ? संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष पर भीम राव आम्बेडकर को बिठाया गया । वे आधुनिक भारत के मनु हुये । उन्होंने हंस कर कहा , जब देश को शास्त्रों की ज़रुरत थी तो एक शूद्र वेदव्यास को बुलाया गया । महाकाव्य की ज़रुरत हुई तो दूसरे शूद्र बाल्मीकि को बुलाया गया । अब संविधान की ज़रुरत हुई तो मुझे बुलाया गया । आम्बेडकर आजाद भारत के प्रथम विधिमंत्री बने । हिन्दुओं के लिये एक विधि संहिता बनाने का प्रसंग आया तो सबसे बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ हिन्दु को पारिभाषित करने का । बाबा साहेब ने मुसलमान,ईसाई, यहूदी और पारसी को छोड़ कर इस देश के सब नागरिक हिन्दु हैं , ऐसा कहा । अर्थात विदेशी उदगम के मजहबों को मानने वाले अहिन्दु हैं , बाकी सब हिन्दु हैं । उन्होंने इस परिभाषा से देश की आधारभूत एकता को रेखांकित कर दिया था ।
आम्बेडकर का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था । विधि मंत्री के पद से वे त्यागपत्र दे चुके थे । मन बेचैन था । ईसाई मिशनरियां दलित समाज को मतान्तरित कर रही हैं , इसका संकेत शंकरानन्द शास्त्री पहले ही कर चुके थे । बाबा साहेब ज्ञान के रास्ते के पथिक थे । वह रास्ता जिसे सिद्धार्थ गौतम ने तर्क का सम्बल प्रदान किया था । दुख मुक्ति का रास्ता । उन्होंने नागपुर में दीक्षा ग्रहण की । वे भगवान बुद्ध की शरण में दीक्षित हो गये । उनका गला भर आया था । उन्होंने रहस्योदघाटन किया कि मैंने अरसा पहले महात्मा गान्धी को बचन दिया था कि मैं जिस मत में भी दीक्षित हूंगा, तो यह ध्यान रखूंगा कि उससे भारतीयता को कम से कम नुक़सान हो । आज मैंने वह बचन पूरा कर दिया है । बुद्ध भारत की सनातन परम्परा का ही हिस्सा हैं । इस लिये मेरी इस दीक्षा से कोई हानि नहीं होगी ।
आम्बेडकर समाज के एक बड़े हिस्से को विदेशी मिशनरियों व सामी सम्प्रदायों के जाल से बचाने का रास्ता दिखा गये । भारत विभाजन पर जब दोनों ओर से बहुत ही दर्दनाक हालात में लोगों की अदल बदली हो रही थी तो आम्बेडकर ने अपने लोगों को चेतावनी दी कि पाकिस्तान या हैदराबाद में कोई भी निम्न जाति का व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करने की बात तक न सोचे । संविधान सभा में उन्होंने कहा था – “आज हम राजनैतिक , सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से टुकड़े टुकड़े हो गये हैं । हम आपस में लड़ने वाले गुट बन गये हैं । ईमानदारी से कहूं तो मैं भी इस प्रकार लड़ने वाले एक गुट का नेता हूं । फिर भी मुझे विश्वास है कि कालानुक्रम में अच्छा समय आने पर हमारे देश को एक होने से रोकना संसार की किसी भी शक्ति के लिये संभव नहीं । हममें इतने जाति पंथ हैं, तो भी इसमें कोई संदेह नहीं कि हम एक ही समुदाय हैं । भारत के विभाजन के लिये यद्यपि मुसलमानों ने लड़ाई की तो भी आगे कभी एक दिन उन्हें अपनी ग़लती महसूस होगी और उनको लगेगा एक अखंड भारत ही हमारे लिये अच्छा है ।”
बाबा साहेब के ये प्रश्न आज भी किसी सीमा तक अपने उत्तर की तलाश में हैं । उनका उत्तर ही आज उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी और उन सही उत्तरों में ही भारत का भविष्य छिपा है ।