असम समस्या को लेकर चर्चा होती रहती है । उसके समाधान के तरीके भी अपने अपने नजरिये से बताये जाते हैं । लेकिन असम समस्या को जानने बूझने के लिये जरुरी है कि पहले असम के दर्द को समझा जाये । उस दर्द को अनुभव करने के लिये संवेदनशील होना उससे भी ज्यादा जरुरी है । भारत के दो क्षेत्र ऐसे हैं जिन पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा सब से अन्त में हुआ । पंजाब पर अंग्रेजों ने कब्जा १८४९ के शुरु में किया और असम पर उनका कब्जा 1839 में पूरा हो गया था । पंजाब और असम में अन्तर केवल इतना ही था कि पंजाब उस समय सीमान्त प्रान्त नहीं था ( वह भारत के विभाजन के बाद सीमान्त प्रान्त बना ) ,जबकि असम उस वक्त भी सीमान्त प्रान्त था । असम की सांस्कृतिक एकता को खंडित करने के लिये ब्रिटिश शासकों ने चर्च का उपयोग किया । उन के निशाने पर खास तौर पर जनजाति के लोग थे । दूसरी ओर ब्रिटिश शासकों ने सीमान्त प्रान्त की रक्षा के लिये पुख्ता बन्दोबस्त भी किये । अंग्रेज जानते थे कि चीन से असली ख़तरा है । इसलिये उन्होंने तिब्बत के साथ समझौते किये ताकि चीन को भारत के सीमान्त असम से दूर रक्खा जा सके । अंग्रेज अपनी इन दोनों योजनाओं में कामयाब हुये । वैसे चीन उस समय इतना ताकतवर भी नहीं था कि तिब्बत पर कब्जा कर लेता और हिमालय पर पहुँच जाता । अंग्रेजों के खिलाफ़ जैसे जैसे भारतीयों का आन्दोलन बढ़ता गया त्यों त्यों एक तीसरी ताकत भी उभरने लगी थी । यह ताकत मुस्लिम लीग की थी , जिसे ताकत प्रदान करने में अंग्रेजों ने भी षड़यंत्रकारी भूमिका निभाई । बाद में मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभाल लिया तो जिन्ना व ब्रिटिश सरकार की रणनीति अपने अंजाम की ओर बढ़ी । असम उन की नई प्रयोगस्थली बनी । यह प्रयोग था भारत को विभाजित करने का । अंग्रेज पहले भी इस का प्रयास १९०५ में बंगाल को िवभजित करके कर चुके थे । पूर्वी बंगाल और अधिकांश असम को मिला कर एक नया मुस्लिम प्रान्त बनाने की योजना थी,जिसे उस वक्त जन विरोध के कारण निरस्त करना पड़ा । लेकिन मुस्लिम लीग ने अपनी योजना नहीं त्यागी । बंगाल से मुसलमानों को असम में बसने के लिये प्रोत्साहित किया जाने लगा ।
१९०६ में ढ़ाका में मुस्लिम लीग के अधिवेशन के अन्त में नबाब सलीमुल्ला खान ने मुसलमानों से अपील की थी कि वे पूर्वी बंगाल से असम में जाकर बसें ताकि उसे मुस्लिम बहुल बनाया जा सके । १९३७ में जब भारत सरकार अधिनियम १९३५ के तहत चुनाव हुये तो कांग्रेस सरकार बना सकती थी,लेकिन कांग्ेस ने सरकार बनाने से इन्कार कर दिया जिसके कारण मुस्लिम लीग ने सरकार बनाई और सादुल्लाह प्रदेश के प्रधानमंत्री बने ा सादुल्लाह ने मुस्लिम लीग की योजना को क्रियान्वित करना शुरु कर दिया । अन्न उपजाओ योजना के अन्तर्गत लाखों बंगाली मुसलमानों को सरकारी ज़मीन के मालिकाना हक़ देकर बसाना शुरु कर दिया । १९३७ से लेकर १९४७ तक कुछ अरसे को छोड़ कर मुस्लिम लीग की ही सरकार रही ,जिसने असम को मुस्लिम बहुल बनाने का अपना अभियान चलाये रखा । १९४२ में जब कांग्रेस ने सभी प्रान्तों में इस्तीफा दे दिया ,तो नेहरु को बहुत लोगों ने समझाया कि असम की स्थिति अलग है , गोपीनाथ बारदोलोई के त्याग पत्र के बाद मुस्लिम लीग की जो सरकार बनेगी वह असम को भावी पाकिस्तान में मिलाने की कोशिश करेगी । लेकिन नेहरु नहीं माने । कैबिनेट मिशन की सिफ़ारिशों के अनुसार अंग्रेज सरकार असम को भी बंगाल के साथ सी श्रेणी के समूह में रखना चाहती थी । यदि ऐसा हो जाता तो असम के पाकिस्तान में जाने का ख़तरा बहुत बढ़ जाता । इस का श्रेय भी गोपीनाथ बारदोलोई को जाता है कि उन्होंने इस सािजश को सिरे नहीं चढ़ने दिया । जबकि नेहरु उस समय भी चुप रहे ।
चर्च ने मतान्तरण का अपना धन्धा अंग्रेज सरकार की सरप्रस्ती में शुरु किया था , उसमें भी उन्हे आशातीत सफलता ,खास कर जनजाति क्षेत्रों में, मिली ।ज्यादा जनजाति क्षेत्र उन दिनें असम का ही हिस्सा थे ा वे बहुत बाद में अलग राज्य बने । मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बन जाने के बाद भी असम में अपनी रणनीति को जारी रखने के लिये अपनी असम शाखा के अधिकांश सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने के लिये प्रेरित किया । इस प्रकार असम को पाकिस्तान में शामिल किये जाने के अधिकांश समर्थक भारत में ही रह गये । जिन्ना के सचिव और लीग की युवा शाखा के अध्यक्ष मोनुयल हक चौधरी तो बाद में कांग्रेस सरकार में मंत्री बने । अंग्रेजों के चले जाने के बाद असम के लोगों को आशा थी कि केन्द्र में बनी कांग्रेस सरकार अब असम की सांस्कृतिक पहचान मिटाने वाली अंग्रेज सरकार की नीतियों को बदलेगी । परन्तु आने वाले दिनों में सत्ता का आधार वोट ही बनने वाला था इसलिये असम में कांग्रेस ने प्रारम्भ से ही मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाई ।
यहाँ तक सीमा सुरक्षा का प्रश्न था ,जिसका मोटा अर्थ असम की सुरक्षा ही था ,पंडित नेहरु ने सरदार पटेल , गुरु गोलवलकर, राम मनोहर लोहिया इत्यादि द्वारा बार बार चेतावनी देने के बावजूद चीन द्वारा तिब्बत को निगल जाने दिया । तिब्बत पर चीन के कब्जे का अर्थ सीधा सीधा असम पर संकट का आना ही था । लेकिन नेहरु ने असम के विकास और सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ आधारभूत सरंचना के निर्माण की ओर आपराधिक कोताही की । चीन की भारत विरोधी गतिविधियाँ निरन्तर बढ़ रहीं थीं और नेहरु चीन के तुष्टीकरण में लगे हुये थे । १९६२ का आक्रमण हुआ और जैसा डर था चीन की सेना असम में तेजपुर तक पहुँच गई । नेहरु ने उस वक्त आकाशवाणी से जो असम के लोगों को संदेश दिया वह एक प्रकार से असम के लिये अलविदा संदेश ही था । उस भाषण ने असम के लोगों को मनोवैज्ञानिक रुप से घायल किया । यह कांग्रेस का एक प्रकार असम के साथ विश्वासघात था । इन्हीं दिनों असम में छिटपुट अलगाववादी समूह पनपने लगे । लेकिन सत्ता के लालच में कांग्रेस ने असम के घायल लोगों के घावों पर मरहम लगाने की बजाय , असम में ही रह गये मुस्लिम लीग के साथियों के सहयोग से सत्ता हथियाते रहने में ज्यादा रुचि दिखाई । कांग्रेस में मोनुयल हक़ चौधरी जैसों की प्रगति इसी का सबूत थी । कांग्रेस के इन असम विरोधी हथकंडों से असम के लोगों के स्वाभिमान को और भी ज्यादा चोट पहुँची ।
कांग्रेस जो नीति असम में अपना रही थी , लगभग उसकी यही नीति पूर्वोत्तर के जनजाति क्षेत्रों के लिये थी । वहाँ उसने चर्च की गतिविधियों को अबाध रुप से चलने ही नहीं दिया बल्कि कालान्तर में उनके सशस्त्र विद्रोहों के सामने झुकते हुये उनकी सभी माँगों को स्वीकार भी किया । इससे उन लोगों में निराशा फैली जो अपने सांस्कृतिक परिवेश से जुड़े रहने के इच्छुक थे । मणिपुर में मैतेयी लोगों ने जो विद्रोह किया उसके पीछे केन्द्र द्वारा चर्च का तुष्टीकरण और हिन्दु मैतेयी लोगों का तिरस्कार भी एक मुख्य कारण था । कांग्रेस वैसे भी पूर्वोत्तर में िवभिन्न समूहों को लड़ा कर अपना उल्लू सीधा करती रही । इसके कारण भी इस क्षेत्र में अलगाव फैला ।
इन पूरी परिस्थितियों में पाकिस्तान परस्त मुस्लिम शक्तियाँ योजनापूर्वक असम में बंगाली मुसलमानों को बसाने में लगी रहीं । 1971 में बंगला देश के निर्माण के बाद तो अबैध घुसपैठ चरम सीमा तक पहुँच गई । इतना ही नहीं एक पूरी योजना के अन्तर्गत इन अवैध मुस्लिम बंगलादेशियों के नाम मतदाता सूची में दर्ज करवाये गये। ,उनके राशनकार्ड़ बनवाये गये , सरकारी जमीनों पर कब्जा करवाया ।इस प्रकार सादुल्लाह के समय से असम का जनसांख्यिकी चरित्र बदलने की जो योजना बनी थी ,उस पर तेज़ी से अमल होने लगा । दुर्भाग्य से कांग्रेस इस में वोटों की खातिर या तो सहायक की भूमिका निभाती रही या फिर उसने सीमान्त प्रदेश में हो रही इन गतिविधियों को तब्बजो देने लायक ही नहीं समझा । लेकिन १९७८ तक आते आते मानों फ्लैश प्वां़यट आ गया । मंगलदोई के सांसद हीरा लाल पटवारी की मृत्यु के कारण उप चुनाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो पता चला कि पिछले चुनाव के दो साल के भीतर ही लाखों बंगलादेशियों के नाम मतदाता सूची में शामिल हो चुके हैं । इसी से असम के इतिहास में १९७९ से बेमिसाल अहिंसक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । अबैध बंगलादेशियों को बाहर निकालने का । यह आन्दोलन अखिल असम छात्र संघ और अखिल असम गण परिषद ने शुरु किया था और इसे असम के प्रत्येक वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ । केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने इस आन्दोलन को कुचलने का हरसम्भव प्रयास किया । इसी बीच अप्रेल १९७९ में कुछ लोगों ने उल्फा (यूनाईटड़ लिब्रेशन फ्रंट आफ असम ) का गठन किया जिसने निराशा में आकर असम को भारत से ही अलग करने की माँग कर डाली । लेकिन केन्द्र सरकार ने असम के लोगों के मन की संवेदनशीलता को समझने की बजाय उसे सेना बल से कुचलने का प्रयास किया । सेना को असम में कई शक्तियाँ दी गईं । १९८३ में केन्द्र सरकार ने असम में विधान सभा का चुनाव करवाने की घोषणा कर दी जबकि लोगों ने बहिष्कार की घोषणा कर दी क्योंकि सरकार अबैध बंगलादेशियों का नाम मतदाता सूची से निकालने को तैयार नहीं थी । इसका एक कारण यह भी था कि बंगलादेशी रणनीति के तहत कांग्रेस को ही वोट देते थे । केवल कांग्रेस पार्टी मैदान में थी । उसके अतिरिक्त सी पी आई और सी पी एम मैदान में थी । बहिष्कार इतना अभूतपूर्व था कि तमाम प्रकार के जाली मतदान के बाद भी मतदान प्रतिशत केवल 4.66 रहा । लेकिन कांग्रेस तो असमिया लोगों की भावनाओं को समझने की बजाय उसे चुनौती दे रही थी और असमिया पहचान व गौरव को सेना बल से कुचलने का प्रयास कर रही थी । ऐसे समय में निराशा और प्रतिक्रिया में जो लोग अलगाववाद का रास्ता पकड़ रहे थे , विदेशी शक्तियों द्वारा उन्हें गोद लेने में भला कितनी देर लगती ?
अन्ततः केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने असम के लोगों के साथ १९८५ में समझौता किया ,जिसमें १९७१ को कट डेट मान कर बंगलादेशियों की शिनाख्त करने और उन्हें बाहर निकालने की बात मानी । नये सिरे से विधान सभा के चुनाव हुये और असम गण परिषद की सरकार बनी । परन्तु दुर्भाग्य से केन्द्र सरकार सरकार की इन बंगलादेशियों को अपने राजनैतिक हितों के कारण बाहर निकालने में कोई रुचि नहीं थी । जाहिर है लोगों में निराशा बढ़ती । अलगाववादी उल्फा इत्यादि जिन बंगलादेशियों के खिलाफ़ आन्दोलन छेड,े हुये थे , उन्हीं की गोद में जा बैठे और कालान्तर में चीन के चरणों में जा बिराजे । बंगलादेशियें का असम में आना और जमना बदस्तूर जारी रहा , लेकिन अब उनकी संख्या इतनी ज्यादा हो चुकी है कि गुवाहाटी उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय को भी कहना पड़ा कि भविष्य में असम में सरकार का भविष्य अवैध बंगलादेशी तय कर सकते हैं । प्रदेश के ग्यारह दिलों में मुसलमानों का बहुमत हो गया । आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग ने जिस असम की कल्पना की थी धीरे धीरे असम उस ओर बढ़ रहा है । इस मरहले तक आते आते अब मुसलमानों को कांग्रेस की भी आवश्यकता नहीं थी । वे अब विभाजन पूर्व की मुस्लिम लीग की तर्ज पर अपनी पार्टी बना कर असम की सत्ता हथियाने का प्रयास करने की स्थति में आ गये थे । इसी दिशा में २००५ में मौलाना बद्दरूदीन अजमल ने असम युनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट बनाया (जिसका नाम बाद में आल इंडिया कर दिया गया ) जो असम के मुसलमानों खास कर अबैध बंगलादेशियों का मंच बन गया । असम में २०११ के विधान सभा चुनावों में १८ सीटें जीत कर यह विधान सभा में प्रमुख विपक्षी दल बन गया । जहांं एक बात की ओर ध्यान देना भी जरुरी है कि १९७९ से लेकर २०१२ तक केन्द्र में कई सरकारें आई और गईं ,जिनमें एन डी ए से लेकर यू पी ए तक सभी शामिल हैं लेकिन किसी ने गैर क़ानूनी बंगलादेशियों को निकालने में रुचि नहीं दिखाई । हताश और विकल्पहीनता हिंसा और अलगाव को जन्म देती है ।
पिछले दिनों बोडो बहुल क्षेत्रों में जो हिंसा हुई है ,उसका कारण इसी हताश में खोजा जाना चाहिये । विभाजन पूर्व जिस प्रकार जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग सरकार पर दबाव बनाने के लिये देश के कुछ हिस्सों में डायरैक्ट एक्शन पर उतर आती थी उसी प्रकार मौलाना बद्दरूदीन के नेतृत्व में ए.आई.यू.डी.एफ ने देश के अनेक हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ़ हिंसा का डायरैक्ट एक्शन छेड़ दिया । संदेश साफ़ था । यदि असम के लोग असम से अवैध बंगलादेशियों को निकालेंगे तो हम आप का दूसरे प्रान्तों में रहना मुश्किल कर देंगे । दुर्भाग्य से इस बार भी केन्द्र की कांग्रेस सरकार बद्दरूदीन और अवैध बंगलादेशियों के साथ खड़ी नज़र आई , असम के लोगों के साथ नहीं । अभी भी यदि असम के लोगों की भावना को नहीं समझा गया और उसकी अस्मिता पर आये संकट को दूर करने की चेष्टा न की गई तो निकट भविष्य में स्थिति और भी विस्फोट हो सकती है ।