पंजाब और हरियाणा के उच्च न्यायालय ने अनूठी मिसाल कायम की है। उन्होंने अदालत की अवमानना करनेवालों को न तो जेल भेजा है और न ही कोई जुर्माना किया है। उन्हें ऐसा दंड दिया है, जिससे न्याय की रक्षा भी हो, उन्हें सबक भी मिले और समाज का फायदा भी हो। दो मामलों में अदालत ने दोनों मुजरिमों को सजा जरुर दी है लेकिन उस सजा से दोनों खुश हैं।
दोनों मामले इस प्रकार हैं। पहला मामला एक अध्यापक का है। जींद के एक ड्राइंग-टीचर को हेडमास्टर बनाने का है। अदालत का आदेश था कि उस शिक्षक को प्रधानाध्यापक बनाया जाए। यह आदेश उसने हरियाणा के प्राथमिक शिक्षा निदेशक को दिया था। निदेशक ने इस आदेश की अवहेलना की। जस्टिस बिंदल ने निदेशक को अदालत में पेश करवाया, डांटा और आदेश दिया कि वे हरयाणा के स्कूलों में 5000 पेड़ लगाएं। यही उनकी सजा है।
दूसरा मामला लुधियाना का है। लुधियाना के बिजली विभाग के कर्मचारियों को तनखा में बढ़ोतरी नहीं दी गई। उन्होंने मुकदमा डाला। अदालत ने उनके पक्ष में फैसला दिया लेकिन विभाग अधिकारी ने अदालत के आदेश का पालन नहीं किया। वह अड़ा रहा। उसने तनखा-बढ़ोतरी नहीं की। कर्मचारी फिर अदालत की शरण में गए। इस बार अदालत ने दोषी अधिकारी को बुलाकर फटकार लगाई और कहा कि कर्मचारियों को उनका पैसा तो वे दे हीं, साथ में 200 पेड़ भी लगाएं। इस सजा को मुजरिम ने सहर्ष स्वीकार किया और याचिका दायर करनेवाले वकील ने भी इस सजा को सराहा।
जाहिर है कि इस तरह की सजा देने के प्रावधान कानून की किताबों में तो नहीं लिखे होते लेकिन ऐसी सजाएं चाहे कानून का पेट न भरें लेकिन वे न्याय की गरिमा को बढ़ाती हैं। वे राज्य के कल्याणकारी रुप को भी रेखांकित करती हैं। यहां जिन अपराधों के लिए ये सजाएं दी गई, वे गंभीर नहीं थे लेकिन गंभीर किस्म के अपराधों के लिए भी हमारे न्यायाधीश कुछ इस तरह की तदबीरें निकाल सकें तो हमारी न्याय-व्यवस्था दुनिया में अनन्य बन सकती है। वह अपराधी का हृदय-परिवर्तन कर सकती है। उसके आचरण को अनुकरणीय बना सकती है और समाज को सबलता प्रदान कर सकती है।